Monday 27 October 2014

तकनीक का दुरुपयोग




तकनीक का दुरुपयोग

Thu, 18 Sep 2014

विज्ञान व तकनीक का उद्देश्य सदैव यह रहा है कि मानव समाज उत्तरोत्तर प्रगति करे और यह मनुष्य जीवन को बेहतर बना सके। पिछली एक सदी में विज्ञान के नए-नए आविष्कारों की बदौलत मनुष्य जीवन अधिकाधिक सुखद व सुविधाजनक होता चला गया है। विशेषकर सूचना टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इतनी अधिक तरक्की हुई है कि आज से कुछ दशक पहले किसी ने इस बारे में सोचा भी नहीं होगा। सचमुच यह कल्पनातीत ही था कि ग्राहम बेल ने जिस टेलीफोन का आविष्कार किया था, वह आगे बढ़कर एक दिन मोबाइल फोन में बदल जाएगा और सारी दुनिया एक छोटे गांव में तब्दील हो जाएगी। आज सूचनाएं सरपट हवा में उड़ते हुए पलक झपकते ही दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने में पहुंच जा रही हैं। सूचना टेक्नोलॉजी के व्हाट्सएप व फेसबुक जैसे एप्लीकेशंस ने तो दुनिया का रंग-ढंग ही बदल डाला है। पल भर में ही आप सात समंदर पार बैठे अपने मित्र, परिजन, परिचित से लिखकर बात कर सकते हैं। अपने चित्र उसे भेज सकते हैं। अपनी आवाज उसे सुना सकते हैं, उसकी आवाज सुन सकते हैं। लेकिन दुनिया में हर वस्तु की अच्छाई के साथ उसकी बुराई भी जन्म ले लेती है। इन दोनों माध्यमों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। कुछ लोगों ने इन माध्यमों की जरूरी उपयोगिता से आगे बढ़कर इन्हें अपना व्यसन ही बना लिया है। युवा पीढ़ी तो इस कदर इनकी लती हो चुकी है कि मनोवैज्ञानिक यह सोचने को विवश हो गए हैं कि उसे इस लत से कैसे बाहर निकाला जाए। पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में यह लत कुछ इस कदर सिर चढ़कर बोल रही है कि विद्यार्थी तो दूर अध्यापक भी पूरी तरह इसमें डूबे नजर आते हैं। स्वाभाविक है शिक्षकों की इस लत का असर बच्चों की पढ़ाई पर पड़ रहा है। इसे समझते हुए सरकार स्कूलों में इन एप्लीकेशंस के इस्तेमाल पर पाबंदी पर विचार करने लगी है। सरकार का यह कदम स्वागत योग्य होगा, लेकिन सवाल यह है कि सरकार इस पर अमल करवाएगी कैसे.? मोबाइल फोनों के जरूरी उपयोग को रोका तो जा नहीं सकता। स्वाभाविक है इस पाबंदी को असरदार बनाने के लिए सरकार को अपना निगरानी तंत्र मजबूत बनाना होगा, तभी तकनीक के दुरुपयोग को रोका जा सकेगा।
[स्थानीय संपादकीय: पंजाब]

संचार क्रांति




मोबाइल पर सुविधाएं

Thu, 23 Oct 2014

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मोबाइल फोन ने आम आदमी की जिंदगी की कठिनाइयों को कम करने में बहुत मदद की है। संचार क्रांति की बेहतरीन बानगी कहा जाने वाला यह छोटा सा फोन न जाने कितने किस्म की सूचनाएं उपलब्ध करा देता है। इसी क्त्रम में अब इसके माध्यम से सरकार से जुड़ी सेवाओं को आम लोगों तक पहुंचाने की पहल निश्चित रूप से काबिले तारीफ है। इंडियन रेलवे कैर्टंरग एंड टूरिज्म कारपोरेशन (आइआरसीटीसी) ने एक ऐसा एप्लिकेशन विकसित किया है जिसको अपने एंड्रॉयड मोबाइल फोन पर डाउनलोड करके लोग आसानी से रेलवे के टिकटों की बुकिंग करा सकेंगे। इसी प्रकार दिल्ली जल बोर्ड ने भी एक एप्लिकेशन विकसित किया है जिसके जरिये पेयजल और सीवर से संबंधित शिकायतें भी अपने मोबाइल फोन से आप जल बोर्ड तक पहुंचा सकते हैं। दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों ने भी इसी प्रकार के एप्लिकेशन विकसित किए हैं। इनके माध्यम से विभिन्न सरकारी एजेंसियों से संबंधित सेवाएं मोबाइल फोन के माध्यम से मुहैया कराई जा रही हैं। विभिन्न एजेंसियों द्वारा आम आदमी को आसानी से जरूरी सेवाएं उपलब्ध कराने की ऐसी पहल का भरपूर स्वागत किया जाना चाहिए।
ज्यादा वक्त नहीं गुजरा जब विभिन्न सरकारी सेवाओं को हासिल करने के लिए दिल्ली सरकार, दिल्ली नगर निगम आदि के विभिन्न दफ्तरों में बनी अलग-अलग खिड़कियों के सामने लंबी-लंबी कतारें लगा करती थीं। किसी संस्थान में कोई आवेदन करना हो तो संबंधित व्यक्ति को वहां जाना और कतार में लगना जरूरी था, लेकिन इंटरनेट के जमाने में अब सारी सुविधाएं ऑनलाइन उपलब्ध हैं। चाहे किसी नौकरी का आवेदन पत्र हो अथवा किसी सरकारी प्रमाणपत्र का प्रारूप, सबकुछ ऑनलाइन है। इस ऑनलाइन सुविधा को हासिल करने के लिए भी किसी डेस्कटॉप अथवा लैपटॉप की जरूरत होती है, लेकिन मोबाइल फोन तो लगभग हर व्यक्ति की जेब में है। रेलवे टिकटों की बुकिंग यदि मोबाइल फोन से हो रही है तो जाहिर तौर पर यह बहुत ही सुखद कवायद है। रेलवे की इस पहल से रेल आरक्षण केंद्रों के बाहर लगने वाली कतारों के दृश्य बरबस आंखों के आगे आ जाते हैं। महज एक टिकट के लिए घंटों का इंतजार, मारामारी फिर दलालों के हाथों ठगे जने की विवशता आदि परेशानियां यात्री झेलते रहे हैं। अब उनको ऐसी मुसीबतों से छुटकारा मिलेगा और टिकट बेचने के लिए बड़े-बड़े आरक्षण केंद्र बनाने पर रेलवे को भी मोटा खर्च नहीं करना पड़ेगा।
[स्थानीय संपादकीय: दिल्ली]

साइबर अपराध




बढ़ते साइबर अपराध

Sat, 18 Oct 2014

जैसे-जैसे सोशल मीडिया, इंटरनेट और सूचना तकनीक का विकास हुआ है, उसी क्रम में साइबर अपराध भी पैर पसारने लगे हैं। यही समय है जब इसके उपयोगकर्ताओं को चौकन्ना हो जाना चाहिए। लोगों को दूसरों के कटु अनुभवों से सीख लेने में देर नहीं करनी चाहिए। हाल ही में लखनऊ की एक युवती का फर्जी फेसबुक अकाउंट बनाकर उसके चित्र से चेहरा कापी कर एक अश्लील चित्र से जोड़ने की घटना हुई है।
बाद में यह चित्र फर्जी फेसबुक अकाउंट पर पोस्ट कर दिया गया। इस तरह का यह पहला मामला नहीं है। ऐसी तमाम घटनाएं पहले भी हुई हैं, लेकिन लोगों ने कोई सबक नहीं लिया। ऐसा नहीं कि इस प्रकार की घटनाओं पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए जरूरी है कि यूजर को किसी भी दुरुपयोग के लिए सतर्क रहना होगा। उपयोगकर्ता को अपने मेल अथवा फेसबुक अकाउंट का पासवर्ड किसी को भी नहीं बताना चाहिए। साथ ही फेसबुक पर किसी अपरिचित व्यक्ति की फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार करने से बचना चाहिए।
महिलाओं के लिए आवश्यक है कि वे अपने फोटो फेसबुक पर शेयर न करें। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्यम से महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों की शिकायतें साल दर साल बढ़ती जा रही हैं। इस वर्ष फोटो से छेड़छाड़, फर्जी पहचान के माध्यम से धोखाधड़ी, भद्दे संदेश और पोर्नोग्राफी की लगभग दो दर्जन शिकायतें राष्ट्रीय महिला आयोग के पास पहुंची हैं। पिछले साल ऐसी महज चार शिकायतें आई थीं। ऐसी स्थिति में जरूरी है कि लोग साइबर कैफे में इंटरनेट का प्रयोग करते समय चौकसी बरतें।
इंटरनेट के उपयोगकर्ताओं को कुछ हद तक इसका अंदाजा होने भी लगा है। ईमेल, फेसबुक, क्रेडिट कार्ड, कंप्यूटर और इंटरनेट बैंकिंग से जुड़ी साइबर क्राइम की खबरें आती ही रहती हैं। लोगों को यह जान लेना चाहिए कि उन्हें क्या एहतियाती कदम उठाने हैं। यूजर को मिलने वाले मैसेज और दूसरी जानकारियों को सहेज कर रखना चाहिए। जरूरत पड़ने पर किसी कानूनी लड़ाई में यही कारगर हथियार बनते हैं। अपराध कब हुआ, उसकी तारीख और समय भी जरूर ध्यान रखें। यदि किसी के फेसबुक अकाउंट पर अश्लील टिप्पणी की गई या कोई अश्लील ईमेल भेजा गया है तो उसे अपने पास सुरक्षित रखना जरूरी है, क्योंकि टिप्पणी करने वाला उसे हटा भी सकता है।
ज्यादातर साइबर अपराध हमारी अज्ञानता के कारण ही होते हैं। इसलिए लोगों को अपना तकनीकी ज्ञान बढ़ाना चाहिए, ताकि किसी अनहोनी से वे बच सकें।
(स्थानीय संपादकीय: उत्तर प्रदेश)

कामयाबी की नई उड़ान




कामयाबी की नई उड़ान

Fri, 17 Oct 2014

एक लंबे अर्से से भारत इसके लिए प्रयासरत था कि उसका भी जीपीएस यानी ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम अंतरिक्ष में स्थापित हो। आखिरकार 16 अक्टूबर, 2014 को इसरो ने अपने ध्रुवीय रॉकेट से भारत के तीसरे नैविगेशन उपग्रह आइआरएनएसएस-1 सी की सफल स्थापना से अपनी मंजिल पा ली है। अब भारत उस मुकाम पर जा पहुंचा है जहां पर चंद देशों का ही अभी तक वर्चस्व था। तकरीबन 10 वर्ष पूर्व इसरो के इंजीनियरों ने अमेरिकी 'जीपीएस' से भिन्न नैविगेशन प्रणाली विकसित करने पर विमर्श आरंभ किया था। जीपीएस उपग्रह आधारित एक ऐसी प्रणाली है जिससे उपग्रह द्वारा जल, थल, नभ के चप्पे-चप्पे पर नजर रखी जा सकती है। इसका सीधा अर्थ है-उपग्रह आधारित वैश्रि्वक दिशा ज्ञान और स्थान निर्धारण। अब तक ऐसी नैविगेशन प्रणाली की स्थापना करीब दो दशक पहले अमेरिका ने की थी। बाद में कई अन्य राष्ट्रों ने भी ऐसी प्रणालियों की स्थापना की, जो अभी विकासाधीन हैं। अमेरिकी नैविगेशन प्रणाली को 24 उपग्रहों की दरकार है। रूस ने भी वैश्रि्वक कवरेज के लिए ऐसी प्रणाली विकसित की है जिसे उसने 'ग्लोनास' नाम दिया है, जिसमें 24 उपग्रह होंगे। यूरोप भी ऐसी प्रणाली की स्थापना कर रहा है। उसकी नैविगेशन प्रणाली में 27 उपग्रह होंगे। उसका यह कार्य वर्ष 2019 तक पूरा हो सकेगा। यूरोप की इस प्रणाली का नाम 'गैलिलियो' है। फिलहाल उसने इस प्रणाली में अभी तक चार उपग्रहों की स्थापना की है। चीन की नैविगेशन प्रणाली में 35 उपग्रह होंगे। अक्टूबर 2012 तक उसने 16 उपग्रहों की स्थापना कर ली थी। उसकी यह प्रणाली वर्ष 2020 तक पूरी होगी, लेकिन उसका दायरा एशिया और प्रशांत क्षेत्र तक सीमित होगा। जापान की इस प्रणाली यानी क्यूजेडएसएस में 3 उपग्रह ही होंगे। उसने अपने पहले उपग्रह का प्रक्षेपण दिसंबर, 2010 में किया था।
भारत भी अमेरिकी जीपीएस से जुड़ सकता था, लेकिन इसमें खतरा था। युद्ध या किसी अन्य संवेदनशील अवसर पर यदि उसने अपनी सेवाएं हमें देना बंद कर दिया तो कुछ का कुछ भी हो सकता था। ऐसे में हमारी नैविगेशन प्रणाली ध्वस्त हो सकती है और उपग्रहों से सिग्नल न मिलने पर हमारी रक्षा प्रणाली तार-तार हो सकती है। इस कारण भारत ने अपनी स्वतंत्र नैविगेशन प्रणाली के विकास का निर्णय लिया जो सही कदम है। अंतर सिर्फ यह है कि हमारी प्रणाली एक क्षेत्रीय सेवा है, जो भारत और उसके इर्द-गिर्द 1500 किमी के दायरे को अपने कवरेज में ले सकेगी। इसरो के विशेषज्ञों के मुताबिक यह हमारी जरूरतों के लिए पर्याप्त भी है। अमेरिकी जीपीएस सिस्टम में 24 उपग्रह और भू-केंद्रों का वैश्रि्वक जाल है, जो धरती के जर्रे-जर्रे पर अपनी पैनी नजर 24 घंटे रख सकता है। यह अत्यंत महंगी प्रणाली है। इसलिए इसरो ने अपने लक्ष्य को सीमित करने पर विचार किया। इसके लिए हमें मात्र 7 उपग्रहों की स्थापना करनी होगी। भारतीय नैविगेशन प्रणाली के पहले उपग्रह की सफल स्थापना 1 जुलाई, 2013 को की गई थी। इस उड़ान ने भारत के पहले नैविगेशन उपग्रह 'आइआरएनएसएस-1 ए' को भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर दिया। उपग्रह का भार 1425 किग्रा है और इसकी कार्यकारी अवधि 10 वर्ष आकलित की गई है। यह ध्रुवीय रॉकेट की 23वीं सफल उड़ान थी। यह उपग्रह राष्ट्र को अपनी सेवाएं मुहैया करा रहा है। इस क्रम में भारत ने अपने दूसरे नैविगेशन उपग्रह 'आइआरएनएसएस-1बी' का प्रक्षेपण 4 अप्रैल, 2014 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से ध्रुवीय रॉकेट से किया। उड़ान भरने के मात्र 19 मिनट बाद उसने उपग्रह को उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया। हमारी नैविगेशन प्रणाली के दूसरे उपग्रह 'आइआरएनएसएस-1 बी' का भार 1432 किग्रा है और इसकी कार्यकारी अवधि 10 वर्ष से अधिक अनुमानित की गई है। इस क्रम में हमारे ध्रुवीय रॉकेट ने 16 अक्टूबर, 2014 को सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से उड़ान भरी और 20 मिनट बाद उसने भारत के तीसरे नैविगेशन उपग्रह को भूस्थिर कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। भारत के तीसरे नैविगेशन उपग्रह 'आइआरएनएसएस-1 सी' का भार 1425 किग्रा है, जो हमारी नैविगेशन प्रणाली का तीसरा उपग्रह है। इसकी मदद से हवाई जहाजों की सेफ लैंडिंग हो सकेगी और मिसाइलें भी अपने लक्ष्य को आसानी से ढूंढ़ लेंगी। इस प्रकार भारत की रक्षा प्रणाली और सिविल एविएशन को भी खासी मदद मिलेगी। वर्ष 2016 तक हमारा नैविगेशन नेटवर्क पूर्णता को प्राप्त कर लेगा। 'इसरो' का यह भी कहना है कि जरूरत पड़ने पर इस प्रणाली में चार और उपग्रह छोड़े जा सकते हैं। यह हमारे लिए गौरव की बात है कि भारत ने अपनी नैविगेशन प्रणाली का स्वतंत्र विकास कर लिया है और वह भी मात्र 1420 करोड़ रुपये की लागत से। इसरो के कर्मठ इंजीनियरों ने काफी कम पूंजी निवेश के साथ इस प्रणाली को स्थापित करके दुनिया के समक्ष एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। यह सेवा जल ही नहीं, बल्कि थल और नभ में स्थित किसी भी वस्तु की लोकेशन पर नजर रख सकती है और उसका मार्ग-निर्देशन कर सकती है। मसलन ट्रक अथवा कार ड्राइवर मोबाइल से अपनी सटीक लोकेशन की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रणाली का उपयोग करके युद्धक विमानों के पायलट, समुद्री जहाजों के कैप्टन अपने रूटों की सटीक जानकारी पा सकेंगे। यहां तक कि मिसाइलें भी आसानी से अपने लक्ष्यों को खोज पाने में सफल होंगी।
भारतीय नैविगेशन प्रणाली की एक सेवा आम लोगों के लिए होगी और दूसरी सेवा सेना या सुरक्षा एजेंसियों के लिए। अब हम अपने दुश्मनों की गतिविधियों पर नजर रख सकते हैं, आतंकवादियों के ठिकानों को खोज सकते हैं और आपदा प्रबंधन में भी इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। इस प्रणाली की सफल स्थापना के साथ भारत में किसी भी स्थल की सटीक जानकारी 10 मीटर की परिशुद्धता तक प्राप्त की जा सकेगी और भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसकी शुद्धता 20 मीटर तक होगी। मंगलयान की सफलता के बाद यह इसरो का एक और कीर्तिमान है।
[लेखक शुकदेव प्रसाद, विज्ञान मामलों के विशेषज्ञ हैं]

भारत की मंगल यात्रा




इसरो ने बजाई मंगल की डोर-बेल

Tuesday September 23, 2014

लेखकः बलदेव राज दावर।।
पिछले दस महीनों से हमारी नजरें अपने पड़ोसी ग्रह मंगल पर टिकी हैं। वह हमारे रात के आकाश से अनुपस्थित नहीं रहा। पिछले साल 5 नवंबर को वह भारत के आकाश में रात के 1.55 बजे उदित होकर अगले दिन 2.40 बजे अस्त हुआ था। इस साल 8 अप्रैल को वह सूर्यास्त के समय पूर्व से उदित होकर सारी रात जगमगाया था और सूर्योदय के समय पश्चिम में अस्त हुआ था। इस सप्ताह भी वह लगभग 11 बजे उदित होकर शाम 9.36 पर अस्त हुआ करेगा। यानी इन दिनों सूर्यास्त से दो घंटे बाद तक हमें उसकी हल्की-सी झलक पश्चिमी आकाश में मिलती रहेगी। लेकिन पिछले दस महीनों में हमारी डिजिटल नजरें मंगल ग्रह से ज्यादा मंगलयान पर टिकी हैं, जो 5 नवंबर को श्रीहरिकोटा से रवाना हुआ था और शून्यमय अंधकार में करोड़ों किलोमीटर की दूरी लांघता हुआ अभी मंगल के द्वार पर दस्तक दे रहा है। इस अरसे में अगर आप किसी दिन सौरमंडल के ऊपर जाकर वहां से नीचे देखते तो आप को एक विशाल और अद्भुत दृश्य दिखाई देता। आप देखते कि इस दौरान न पृथ्वी ठहरी हुई थी न मंगल। दोनों ग्रह बड़ी तेजी से सूरज की परिक्रमा कर रहे थे। पृथ्वी 30 किमी प्रति सेकंड और मंगल 24 किमी प्रति सेकंड की रफ्तार से दौड़ रहा था। आप जानते हैं कि जिन कक्षाओं (आर्बिट्स) में दोनों ग्रह सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं, वे आपस में पास-पास हैं। पृथ्वी की कक्षा अंदर पड़ती है, मंगल की बाहर। हरेक 780 दिनों के बाद पृथ्वी मंगल को ओवरटेक करती है। 
सोया हुआ यान
5 नवंबर 2013 को मंगल पृथ्वी के आगे-आगे चल रहा था। दोनों के बीच तब 28 करोड़ किमी का फासला था। इस साल 8 अप्रैल को पृथ्वी ने मंगल को ओवरटेक किया था। उस समय सूरज, पृथ्वी और मंगल तीनों कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली स्थिति में आ गए थे। पृथ्वी की बाईं तरफ सूरज था तो दाईं तरफ मंगल। पृथ्वी और मंगल एक दूसरे के बहुत करीब भी आ गए थे (केवल 9 करोड़ किमी)। लेकिन आज हम मंगल को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। इन दोनों ग्रहों की आपसी दूरी इस वक्त 21.5 करोड़ किमी को छू रही है। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इन पिछले दस महीनों में मंगलयान चल नहीं रहा था। वह सो रहा था। सच यह है कि आज भी मंगलयान सोया-सोया और पृथ्वी की ग्रेविटी के वश में रहता हुआ, हर पल मानो पृथ्वी पर गिर रहा है। इस बीच इसरो ने मंगलयान से दो-तीन दफे संपर्क किया था। इस साल 12 जून को यान के इंजन को जगाया और उसकी गति तथा दिशा में जो मामूली परिवर्तन जरूरी थे, वे कर दिए। अभी कल ही, यानी 22 सितंबर को एक बार फिर यान के इंजन को चला कर देखा गया कि उसके कल-पुर्जों का स्वास्थ्य कैसा है। मंगल की कक्षा में प्रवेश के लिए जरूरी हर तरह की जांच-पड़ताल भी कर ली गई। बताया जा रहा है कि सब ठीक-ठाक है। पृथ्वी से चलकर मंगल के निकट पहुंचने वाले किसी यान के पास चार विकल्प होते हैं। एक, वह मंगल के पास से होता हुआ निकल जाए और अंतरिक्ष में भटक जाए। दो, वह अपनी स्पीड को इतना कम कर ले कि मंगल की ग्रैविटी उसे पकड़ ले और वह मंगल के गिर्द घूमने लगे। तीन, वह मंगल से टकरा कर उस पर क्रैश लैंड कर जाए। चार, टकराने से पहले उल्टी दिशा में जोर लगा कर वह मंगल की सतह पर सॉफ्ट लैंड कर जाए। इसरो ने अपने मंगलयान के लिए नंबर दो वाले विकल्प को चुना है। यानी, मंगलयान मंगल पर उतरेगा नहीं, केवल मंगल के आसमान में एक नकली चांद बन कर उसकी परिक्रमा करने लगेगा और कई महीनों के लिए उस दुनिया में तांक-झांक करता रहेगा। 
तीन दिन और
हमारा मंगलयान मंगल के गिर्द घूमने लगे, इसके लिए यान को जगाकर उसकी स्पीड पहले से कम करनी होगी और अपनी दिशा को ठीक निशाने पर साधना होगा। यह काम आसान नहीं। पृथ्वी और मंगल के बीच का फासला इतना अधिक है कि रिमोट द्वारा भेजे हुए हमारे सिग्नल को जाने-जाने में ही 12 मिनट लगते हैं। इतनी दूर से भेजे हुए सिग्नल इतनी बारीकी वाले कामों को अंजाम नहीं दे सकते। इसलिए मंगलयान को मंगल के करीब पहुंच कर जो कुछ भी करना है, वह इसरो के हाथ में नहीं होगा। यह कार्य-कलाप खुद मंगलयान के हाथों में सौंपा गया है। यानी मंगल के निकट पहुंच कर वहां की पल-पल की टोह लेने और स्थिति, स्पीड, दूरी और दिशा के अनुसार एक्शन लेने का काम खुद यान करेगा। यान के कंप्यूटर में आवश्यक सॉफ्टवेयर पहले से भर दिया गया है। लेकिन वह ठीक वक्त पर सही निर्णय ले पाएगा या नहीं, इस सवाल का पुख्ता जवाब 24 सितंबर से पहले कोई नहीं दे सकता। मंगल अभियान के कई सफल प्रयास अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ ने किए हैं। लेकिन, पहले ही प्रयास में किसी देश को सफलता मिल गई हो, ऐसा अभी तक नहीं हुआ। क्या यह कीर्तिमान स्थापित करने का सेहरा भारत के सिर पर बंधेगा? जवाब के लिए इंतजार करें सिर्फ तीन दिन और।
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स्वर्णिम सफलता

Thu, 25 Sep 2014

आखिरकार भारत ने वह कर दिखाया जो इसके पहले अपने प्रथम प्रयास में दुनिया का कोई देश नहीं कर सका था-अमेरिका, यूरोप और रूस भी नहीं। भारत की मंगल तक की यात्रा इसलिए भी बहुत खास है, क्योंकि यह समय और धन के लिहाज से भी बेहद किफायती रही। महज चार सौ पचास करोड़ रुपये खर्च कर हम लाल ग्रह तक पहुंच गए। दुनिया इससे चकित होगी और उसे होना भी चाहिए कि भारत ने इतनी कम लागत में इतनी बड़ी कामयाबी कैसे हासिल कर ली? यह सफलता कितनी स्वर्णिम है, इसे इससे समझा जा सकता है कि अमेरिका, रूस और यूरोप के इस तरह के अभियानों की सफलता का प्रतिशत काफी कम है। एशिया में तो किसी देश का मंगल अभियान कामयाब नहीं हो सका है। सफल मंगल अभियान ने एक ऐसे समय भारत के मान-सम्मान को बढ़ाने का काम किया है जब विश्व समुदाय एक बार फिर से हमारी ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। सीमित साधनों को देखें तो भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने सचमुच असंभव को संभव कर दिखाया है। उन्होंने इतिहास ही नहीं रचा, बल्कि इतिहास ने उन्हें कुछ अद्भुत रचते हुए देखा है। भारत की मेधा शक्ति ने अपना परचम शान से फहराया है। एक कालजयी घटना घटी है और इस पर हर हिंदुस्तानी को गर्व से भर जाना चाहिए। मंगल अभियान की कामयाबी के साक्षी रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह सही कहा कि यह दिन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के सम्मान में आनंद उत्सव मनाने का है। वे अभिनंदन के पात्र हैं। उनकी कामयाबी के संदर्भ में ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जाना चाहिए कि मंगल अभियान का केवल प्रतीकात्मक महत्व है और फिर प्रतीकों की अपनी महत्ता होती है। वे राष्ट्र के गौरव का बखान करने के साथ उसकी गरिमा में चार चांद लगाते हैं।
यह उम्मीद की जानी चाहिए कि मंगल अभियान हमारे वैज्ञानिक समुदाय को उत्साहित करने के साथ देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण करने में भी सहायक होगा जिससे किशोरों और युवाओं में विज्ञान के प्रति वैसी रुचि बढेगी जैसी कि अपेक्षित है। मंगल अभियान के रूप में भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी श्रेष्ठता का जो भव्य प्रदर्शन हुआ है उससे देश में आत्मविश्वास का संचार होने के साथ ही एक नई ताकत मिलने की भी उम्मीद की जाती है। अंतरिक्ष विज्ञान के साथ-साथ भारतीय वैज्ञानिक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी अपनी सफलता की गाथा लिख चुके हैं। इसी तरह मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में भी हमारे वैज्ञानिकों की उपलब्धियां हमारे लिए गर्व का विषय हैं, लेकिन अभी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां चुनौतियां जस का तस खड़ी हैं। हमारे नीति नियंताओं को यह देखना होगा कि इन चुनौतियों से कैसे पार पाया जा सके? यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि भारत को सामान्य हथियारों एवं युद्धक सामग्री के आयात में भारी-भरकम धनराशि खर्च करनी पड़ रही है। यही स्थिति अन्य अनेक उपकरणों के मामले में भी है। आखिर विज्ञान एवं तकनीक के तमाम क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता के बावजूद हमारी ऐसी स्थिति क्यों है? यह वह सवाल है जिसका जवाब खोजा ही जाना चाहिए। यह मुश्किल नहीं, क्योंकि हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल अभियान के जरिये यही साबित किया है कि वे किसी भी तरह की चुनौती का सामना करने में समर्थ हैं।
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करिश्मे जैसी एक कामयाबी

Thu, 25 Sep 2014

आखिर वह बेला आ ही गई जिसकी हमें एक अर्से से प्रतीक्षा थी अर्थात् यान का मंगल की कक्षा में प्रवेश जो निश्चय ही संशय की घड़ी थी, क्योंकि अभी तक किसी भी राष्ट्र का प्रथम प्रयास सफल नहीं हुआ था। 24 सितंबर, 2014 को प्रात: 7:17 बजे इंजन को दागा गया जिसका प्रज्जवलन 24 मिनटों तक जारी रहा। 'लैम' मोटर के साथ ही 8 छोटे थ्रस्टर्स भी दागे गए। इसका मकसद यान की गति को कम करना था अन्यथा उसकी मंगल से भिड़ंत हो सकती थी। मिशन सकुशल अपने अंजाम तक पहुंचा और 8:02 बजे मंगल की कक्षा में प्रविष्ट हो गया। भारत मर्शियन इलीट क्लब में सम्मिलित ही नहीं हुआ, बल्कि विश्व का पहला राष्ट्र बन गया जिसने अपने पहले ही प्रयास में ऐसी सफलता अर्जित की। मिशन की सबसे खास बात यह है कि इसकी कुल लागत मात्र 450 करोड़ आई है। इससे कहीं अधिक राशि तो हमें अपने इन्सेट/जी-सेट श्रृंखला के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए एरियन स्पेस को देने पड़ते हैं। इस समय हमारे यान की लाल ग्रह से अधिकतम दूरी 80,000 किमी और निकटतम दूरी 423 किमी है और उसने मंगल की प्रदक्षिणा आरंभ कर दी है।
इस ऐतिहासिक उपलब्धि के अवसर पर हमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम अंबालाल साराभाई की याद आ रही है जिन्होंने अंतरिक्ष कार्यक्रम का एक नन्हा बिरवा रोपा था जो आज वट वृक्ष बन चुका है। स्मरण कीजिए जब उन्होंने ऐसे प्रयास आरंभ किए थे, तब बहुत सी आपत्तिायां जताई गई थीं, लेकिन भारत की खोई गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिए उन्होंने डॉ. सीवी रमन, प्रो. प्रफुल्ल चंद राय के मार्ग का अनुसरण किया और आज भारत अंतरिक्ष की बड़ी शक्ति है। उस समय डॉ. साराभाई ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा था कि भारत जैसे निर्धन राष्ट्र को इस दिशा में निवेश करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ऐसा न करने से हम राष्ट्रनिर्माण की विकासात्मक परियोजनाओं से विमुख हो जाएंगे। हमें अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी है। उपग्रह अंतरिक्ष में चक्कर काटने वाली आंखें हैं जो धरती और धरती के संसाधनों की गहन जांच-पड़ताल करती हैं। इससे हम धरती के संसाधनों का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं और इसका लाभ देशवासियों को पहुंचा सकते हैं जैसाकि देश के संविधान में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की गई है। कहना न होगा कि भारत प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी, परमाणु संसाधनों के क्षेत्र में भी लोहा मनवा चुका है। सबसे खास बात यह है कि भारत ने अपने अत्यंत सीमित बजट में ऐसी अप्रतिम उपलब्धियां हासिल की हैं जो किसी भी राष्ट्र के लिए नामुमकिन थीं। हमारी इन उपलब्धियों पर भावी पीढ़ी और दुनिया हमें हसरत की निगाह से देखेगी।
इस क्रम में 5 नवंबर, 2013 'इसरो' के इतिहास का एक गौरवमयी क्षण है जब हमारे ध्रुवीय रॉकेट के लिफ्ट ऑफ के साथ ही भारत का मंगल मिशन आरंभ हुआ। सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से दोपहर 2:38 बजे ध्रुवीय रॉकेट ने उड़ान भरी, 44 मिनटों की यात्रा के बाद इसने मंगलयान को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। 7 नवंबर, 2013 को यान की कक्षा के उन्नयन की प्रक्रिया आरंभ हुई। 'इस्ट्रैक' बेंगलूर के वैज्ञानिकों ने इसी दिन भोर में 1:17 बजे यान के 440 न्यूटन इंजन के प्रज्जवलन की कमान भेजी। इस इंजन को तकनीकी भाषा में 'लैम' कहते हैं जो धक्का देकर यान को अपनी कक्षा से विचलित नहीं होने देता है। इसी को नोदन प्रणाली भी कहते हैं। इंजन सात मिनट तक प्रज्जवलित रहा और इसने यान की कक्षा वर्धित कर दी। मार्स आर्बिटर की कक्षा के उन्नयन का दूसरा चरण 8 नवंबर, 2013 जबकि तीसरा चरण 9 नवंबर, 2013 को संपन्न हुआ। इससे यान का दूरस्थ बिंदु 40,186 किमी से बढ़कर 71,636 किमी हो गया। मगर इसके चौथे चरण में एक बाधा उत्पन्न हुई और यान 1,00,000 किमी के दूरस्थ बिंदु के लक्ष्य को न पा सका। इस चरण में यान के दूरस्थ बिंदु को 71,623 किमी से बढ़ाकर एक लाख किमी करना था, लेकिन 35 मीटर प्रति सेकंड के वेग से यह मात्र 78,276 किमी तक की ऊंचाई तक ही जा सका, क्योंकि यान को हम 130 किमी प्रति सेकंड का वेग नहीं दे सके।
यान की कक्षा के उन्नयन की आखिरी प्रक्रिया 30 नवंबर और 1 दिसंबर की रात को 12:42 बजे आरंभ हुई और प्राय: 25 दिनों तक धरती की परिक्त्रमा करने के बाद यान को भू-केंद्रिक कक्ष से बाहर निकाल कर सूर्य-केंद्रिक कक्ष में डाल दिया गया और पूर्व योजना के अनुसार 300 दिनों तक यह सूर्य की प्रदक्षिणा करके अंतत: 24 सितंबर, 2014 को मंगल की कक्षा में प्रविष्ट कर गया। इस बीच हमें मंगलयान की लगातार निगरानी करनी पड़ी। इसके प्रक्षेप पथ में यदि विचलन हो गया होता तो हमारा यान भटक जाता। इसके लिए जो सुधार प्रक्त्रिया अपनाई जाती है उसे टीसीएम अर्थात प्रक्षेप पथ सुधार युक्ति कहते हैं। इसका पहला चरण 11 दिसंबर, 2013 को संपन्न हुआ। अगला टैजेक्ट्री करेक्शन कोर्स 11 जून, 2014 को संपन्न किया गया, लेकिन ये अपेक्षाकृत छोटे न्यूटन इंजन थे। अभी भी मंगलयान में 304 किग्रा का प्रणोदक शेष था जो यान को प्रणोदित करके अंतत: उसे मंगल की कक्षा में प्रविष्ट कराता। इसके लिए 440 न्यूटन द्रव इंजन को प्रज्जवलित करना था, जो 300 दिनों तक शीतनिद्रा में था। अंतत: उसे जाग्रत करना था ताकि यान की मंगल कक्षा में प्रविष्टि की प्रक्रिया संपन्न हो सके। इसके लिए 22 सितंबर, 2014 को ढाई बजे दोपहर इसकी मोटर को चार सेकंड तक दागा गया और यह उपक्रम पूरी तरह सफल रहा। हमारा मार्स आर्बिटर अपने साथ पांच नीतिभार (पेलोड) ले गया है जो मंगल का अन्वेषण करेंगे। इसका 'लैप' (लाइमन अल्फा फोटोमीटर) नामक फोटोमीटर वहां पर ड्यूटेरियम और हाइड्रोजन की सापेक्षिक प्रचुरता की माप करेगा। ड्यूटेरियम/हाइड्रोजन अनुपात के मापन से मंगल के ऊपरी वायुमंडल में पानी की क्षति की मात्रा का पता चलेगा। दूसरा नीतिभार (पेलोड) मीथेन सेंसर ़(मीथेन सेंसर फॉर मार्स-एमएसएम) मंगल के वातावरण में मीथेन का मापन करेगा और इसके स्नोतों की भी जानकारी प्राप्त करेगा।
इसका तीसरा पेलोड मेन्का (मार्स एक्सोफेरिक न्यूट्रल कंपोजीशन एनालाइजर) द्रव्य विश्लेषक है जो मंगल के बर्हिमंडल में उपस्थित कणों के निष्क्रिय संगठन का विश्लेषण करेगा। चौथा पेलोड तापीय अवरक्त स्पेक्ट्रोमीटर (थर्मल इन्फ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर) है जो मंगल की सतह के ताप को मापेगा। इससे हमें मंगल की सतह के संगठन के मापन और वहां पर खनिजों की खोज में मदद मिलेगी। पांचवां पेलोड मार्स कलर कैमरा है जो हमें मंगल की सतह के चित्र भेजेगा। इस ऐतिहासिक अवसर पर 'इसरो' के तपोनिष्ठ इंजीनियरों को हमारा नमन।
[लेखक शुकदेव प्रसाद, विज्ञान विषयों के जानकार हैं]
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मंगल ही मंगल

नवभारत टाइम्स | Sep 25, 2014

मंगल मिशन की कामयाबी पर हरेक भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो गया है। इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) का मार्स ऑर्बिटर मिशन (मंगलयान) बुधवार की सुबह मंगल की कक्षा में प्रवेश कर गया। इस तरह भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जिसने अपने पहले ही प्रयास में यह सफलता हासिल की है। चीन और जापान के अब तक के सारे प्रयास विफल रहे हैं, जबकि अमेरिका को मंगल तक पहुंचने के लिए सात कोशिशें करनी पड़ी थीं। मंगल की कक्षा में यान को सफलतापूर्वक पहुंचाने के बाद भारत इस लाल ग्रह की कक्षा में या जमीन पर यान भेजने वाला चौथा देश बन गया है। अब तक यह उपलब्धि केवल अमेरिका, यूरोप और रूस को हासिल हुई थी। मंगलयान को पिछले साल 5 नवंबर को इसरो के श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से रवाना किया गया था और 1 दिसंबर को यह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल गया था। इस मिशन के लिए हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने दिन-रात मेहनत की है। हमारा यह प्रोजेक्ट लगभग पूरी तरह स्वदेशी है और किफायती भी। गौरतलब है कि इस पर 450 करोड़ रुपये की लागत आई है, जो मंगलयान के जरा ही पहले वहां पहुंचे अमेरिकी यान 'मैवन' की लागत का दसवां हिस्सा है। जाहिर है, हम बेहद कम खर्च में ही एक महत्वपूर्ण अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। इस कोशिश ने हमें चोटी का स्पेस पावर तो बना ही दिया है, भविष्य में यह हमें कई और तरह के फायदे भी पहुंचाने वाला है। मंगल मिशन का मकसद मंगल ग्रह पर जीवन के सूत्र तलाशने के साथ ही वहां के पर्यावरण की जांच करना भी है। वहां यह मीथेन गैस के स्रोत का पता लगाएगा, साथ ही वहां की खनिज संपदा का अध्ययन भी करेगा। मून मिशन और मंगल मिशन की सफलता के बाद अब यह बहस बेमानी हो गई है कि गरीबी और दूसरी समस्याओं से ग्रस्त भारत को अपना स्पेस प्रोग्राम आगे बढ़ाना चाहिए या नहीं? सच तो यह है कि इसरो जल्द ही अपने स्पेस बिजनस के जरिये अपने सारे खर्चे खुद ही निकालने लगेगा। इस मिशन की कामयाबी के बाद इसरो को विदेशी सैटलाइट्स लॉन्च करने के नए ऑर्डर मिलने के पूरे आसार हैं। बहरहाल, पिछले कुछ सालों में इसरो को मिली जबर्दस्त कामयाबियों ने देश के वैज्ञानिक ढांचे में एक तरह का असंतुलन पैदा कर दिया है। उसी के जोड़ का समझे जाने वाले संगठन डीआरडीओ के पास काफी समय से दिखाने को कुछ भी नया नहीं है। रक्षा के क्षेत्र में आयात पर हमारी निर्भरता कम होने का नाम नहीं ले रही है। कृषि और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी हमारे शोध और अनुसंधान की हालत काफी कमजोर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसरो की शानदार सफलता से हमारे बाकी वैज्ञानिकों को भी हौसला मिलेगा और उन्हें इतने संसाधन उपलब्ध कराए जाएंगे कि अपने-अपने दायरे में वे भी कोई नई जमीन तोड़ सकें। साइंस का लाभ रोजमर्रा के जीवन तक पहुंचाने का यही तरीका हो सकता है।
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मंगलयान की कामयाबी

24-09-14 

मंगलयान का सफलतापूर्वक मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाना भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। पहली बार भारत का कोई अंतरिक्ष यान सौरमंडल के किसी ग्रह तक पहुंचा है। चंद्रयान भी एक बड़ी सफलता थी, लेकिन दोनों अभियानों में फर्क यह है कि चंद्रयान को लगभग चार लाख किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और मंगलयान को 68 करोड़ किलोमीटर की। गौरतलब यह भी है कि भारत का पहला ही मंगल अभियान कामयाब हुआ है। सारे ही अंतरिक्ष अभियान जटिल होते हैं, लेकिन यह अभियान इसरो के तमाम अभियानों से कई गुना जटिल था। इसरो ने इस अभियान में अपने कम शक्तिशाली पीएसएलवी रॉकेट का इस्तेमाल किया और बहुत सूझबूझ से इस रॉकेट की क्षमता को बढ़ाया। इस अभियान से इसरो की और उसके पीएसएलवी रॉकेट की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में प्रतिष्ठा में जबर्दस्त इजाफा होगा और अंतरराष्ट्रीय साझा अभियानों में इसरो की भागीदारी बढ़ेगी। इसी अभियान में पहली बार बेंगलुरु के निकट बाइललू में स्थित इसरो के सुदूर अंतरिक्ष नेटवर्क का भी परीक्षण हुआ और अब यह नेटवर्क तमाम अंतरराष्ट्रीय अभियानों की देखरेख के लिए इस्तेमाल हो सकेगा। इसरो के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती जीएसएलवी का सफल परीक्षण करना है। जीएसएलवी के पिछले परीक्षण नाकाम हो चुके हैं और अगर भारत को सुदूर अंतरिक्ष कार्यक्रम को आगे बढ़ाना है, तो जीएसएलवी रॉकेट की कामयाबी उसमें अनिवार्य है। भारत के भावी अंतरिक्ष कार्यक्रमों में चंद्रयान-2 और सूर्य के निरीक्षण के लिए आदित्य यान शामिल हैं। मंगलयान की कामयाबी का एक अच्छा पक्ष यह है कि इससे देश और विदेश से इसरो को ज्यादा प्रोत्साहन और सहयोग मिलेगा। इसरो बहुत किफायती ढंग से अपना काम करता है, यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन अगर उसे ज्यादा संसाधन मिले, तो जाहिर है कि वह ज्यादा बड़ी योजनाओं पर काम कर सकेगा। इसका एक और फायदा यह हो सकता है कि भारत के नौजवानों में विज्ञान की ओर रुझान बढ़े। भारत में इन दिनों तमाम नौजवानों की महत्वाकांक्षा प्रबंधन, बैंकिंग व आईटी क्षेत्रों में है, क्योंकि पैसा इन्हीं में है। लेकिन सच यह भी है कि अगर भारत को सचमुच आर्थिक महाशक्ति बनना है, तो उसे विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में बुनियादी शोध करने वाले वैज्ञानिकों की जरूरत होगी। दुनिया के तमाम देशों की प्रतिस्पर्धा में वे ही देश आगे रहते हैं, जहां मौलिक शोध होते हैं। भारत में गिने-चुने ऐसे संस्थान हैं, जहां श्रेष्ठ दर्जे का शोध होता है। भारत में विश्वविद्यालयों की तादाद बहुत बड़ी है, लेकिन उंगलियों पर गिने जा सकने वाले विश्वविद्यालय ही हैं, जहां सचमुच शोध होता है। जरूरी यह है कि सरकार और समाज यह समझे कि बिना विज्ञान को प्रोत्साहित किए देश आगे नहीं बढ़ सकता। अंतरिक्ष विज्ञान में भविष्य में बहुत तरक्की होने वाली है। अंतरिक्ष की खोज का सिर्फ अकादमिक महत्व नहीं है, उसके कई व्यावहारिक निहितार्थ भी हैं। आज भी पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किए गए तमाम उपग्रह हमारे जीवन की छोटी-से-छोटी चीज से जुड़े हुए हैं और भविष्य में इनका दायरा बहुत बढ़ने वाला है। मंगल तमाम देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रमों में बहुत महत्वपूर्ण है, इसी वक्त पांच विभिन्न अंतरिक्ष यान या तो मंगल की परिक्रमा कर रहे हैं या मंगल की सतह पर मौजूद हैं। इस प्रक्रिया में जो जानकारी मिलती है या टेक्नोलॉजी में जो विकास होता है, उसके कई व्यावहारिक फायदे हैं। भारत के यान का मंगल तक पहुंचना इस मामले में देश के लिए बहुत उपयोगी है।
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मंगल-मय भारत

हमारी ‘मंगलमय’ यात्रा के धमाके दुनिया में गूंज रहे हैं- हमारा ‘मॉर्स ऑर्बिटर मिशन’ मंगल की कक्षा तक अपने पहले ही प्रयास में पहुंचने वाला दुनिया का पहला अंतरिक्ष यान बन गया है। अमेरिका, रूस और यूरोप के बाद अब हमारा देश भी मंगल की चुनौती को साधने में सफल रहा है- एशियाई महाशक्ति कहलाने वाले जापान और चीन भी इसमें पिछड़ गए हैं। हमारे अंतरिक्ष यान ‘मॉम’ के मंगल की कक्षा में प्रवेश करने का मौका ऐसा ऐतिहासिक था कि इन दुर्लभ लम्हों के गवाह बनने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ‘इसरो’ के मुख्यालय पहुंच गए थे। चंद्रमा के बाद अब मंगल पर विजय हासिल कर हमने दिखा दिया है कि तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का मुकाबला नहीं है। इस सफलता से उत्साहित ‘इसरो’ ने घोषणा की है कि अब अगला निशाना खुद सूरज बनेगा और हमारे अंतरिक्ष यान उसके अत्यंत तप्त और चमकदार कोरोना का अध्ययन करने निकलेंगे। मंगल अभियान की यह उपलब्धि ऐसे अहम मौके पर आई है जब नरेंद्र मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को सफल बनाने की जुगत में लगी हुई है। यह सफलता अरबों खरब के अंतरिक्ष बाजार में भारत को गंभीर खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत करेगी। मंगल की चुनौती इतनी दुरूह है कि इसे लेकर शुरू किए गए तमाम अभियानों में से आधे से भी कम सफलता की मंजिल तक पहुंच पाए। हमारे वैज्ञानिकों के लिए पहला मौका था जब वे धरती की आकर्षण सीमा से बाहर अंतरिक्ष यान को भेजने का प्रयोग कर रहे थे। मंगल तक पहुंचने के लिए ‘मॉम’ को चौंसठ करोड़ किमी से अधिक की दूरी तय करने की चुनौती झेलनी थी। तीन साल पहले चीन और रूस ने मिल कर मंगल तक पहुंचने की कोशिश की थी लेकिन उनका यान पृथ्वी की कक्षा से बाहर ही नहीं निकल पाया था। भारत की पहली कोशिश ही न केवल सफल रही बल्कि पूरा अभियान त्रुटिरहित रहा। इसके बावजूद इस अभियान को हमने अन्य देशों के मुकाबले कई गुणा कम खर्च पर पूरा किया। इससे दुनिया के गरीब और विकासशील देश भी अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़ने और इसका लाभ उठाने का सपना देख पाएंगे और इसमें भारत उनका विश्वसनीय साझेदार बन सकता है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने ‘दक्षेस’ देशों के लिए खास सेटेलाइट का प्रस्ताव दिया था और ‘इसरो’ से इस दिशा में काम करने की गुजारिश की थी। इस अभियान को सफल बना कर हमने साबित कर दिया है कि सुदूर अंतरिक्ष के शोध में भारत दुनिया के आगे नए द्वार खोल सकता है। दुनिया शिद्दत से ऐसे किसी ग्रह की तलाश में है जो पृथ्वी पर महाआपदा के गंभीर खतरों के वक्त इंसान की शरणस्थली बन सके। मंगल इसके लिए काफी उपयुक्त प्रतीत होता है क्योंकि वैज्ञानिकों की नजर में वहां कभी जीवन का अस्तित्व था। बेशक आज की तारीख में वह जीवन के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है लेकिन वहां बसने की संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। मंगल के अध्ययन से यह भी पता लगाया जा सकता है कि किन कारणों से वहां का माहौल जीवन विरोधी बन गया। बढ़ता प्रदूषण आज पृथ्वी का भविष्य भी संकट में डाल रहा है। ऐसे में बचाव का रास्ता हमें मंगल से भी मिल सकता है। इस अभियान की सफलता अगर हमारे देश में विज्ञान की उन्नति के रास्ते खोलती है और युवाओं को इस क्षेत्र की ओर आकृष्ट करती है तो यह असल कमाल होगा।
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इतिहास में दर्ज हो गया यह दिन

विश्लेषण के कस्तूरीरंगन

जो कहते हैं कि हमें अपने यहां मौजूद गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी को देखते हुए अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर इतनी राशि खर्च नहीं करनी चाहिए, वे गलत र्तकों का सहारा लेते हैं बेशक देश को संपन्नता चाहिए लेकिन आर्थिक तौर पर शक्तिशाली होने के लिए जरूरी है कि देश बाकी क्षेत्रों में भी ताकतवर हो। चाहे रणनीतिक क्षमता हो या खेतीबाड़ी का मामला, राष्ट्रीय सुरक्षा हो या बेहतर जीवन स्तर का मसला- सभी चीजें विज्ञान और उन्नत तकनीक के इस्तेमाल से ही निखरती हैं चौबीस सितम्बर का इंतजार भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों को बेसब्री से था। मंगल मिशन की हमारी कामयाबी को लेकर एक अंदेशा था लेकिन उम्मीद उस पर भारी थी। मन के किसी कोने में यह विास था कि हम कामयाब होंगे और ऐसा ही हुआ। यह दिन भारत ही नहीं, दुनिया के लिए अविस्मरणीय रहेगा। हमारा मंगल यान मंगल ग्रह की कक्षा में कामयाबीपूर्वक प्रवेश कर चुका है। पूरे देश के लिए यह एक कालजयी घटना है। हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत ने उस श्रेणी में एकमात्र देश के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ली है जिसने पहली ही कोशिश में ऐसा कारनामा कर दिखाया। मंगलयान की सफलता उन 24 मिनटों पर निर्भर थी जिसमें यान में मौजूद इंजन को स्टार्ट किया जाना था। दरअसल मंगलयान की गति को धीमी करना थी ताकि यान मंगल ग्रह के गुरुत्वाकर्षण में खुद ब खुद खिंचकर उसकी कक्षा में स्थापित हो जाए। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हमने जैसा चाहा वैसा ही हुआ। इसके लिए इसरो से जुड़े वैज्ञानिकों की जितनी तारीफ की जाए, कम है। उन लोगों की भी तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने इस अभियान को किसी न किसी रूप में सपोर्ट किया। कामयाबी का यह समय तालियां बजाने का है, जश्न मनाने का है। इस अभियान की सफलता के लिए पिछले दस महीनों से दो सौ वैज्ञानिक रात-दिन काम कर रहे थे। मंगल यान पिछले साल नवम्बर में मंगल यान सफलतापूर्वक लांच किया गया था। उससे पहले भी वैज्ञानिकों को दिन-रात एक करना पड़ा। शानदार बात यह भी है कि हमने यह पूरा काम अब तक सबसे कम बजट में किया। नासा के अभियान हमारे अभियान से काफी महंगे रहे हैं। हमारी लागत 450 करोड़ रपए है जो नासा के अभियान का दसवां हिस्सा है। जो कहते हैं कि हमें अपने यहां मौजूद गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी को देखते हुए अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर इतनी राशि खर्च नहीं करनी चाहिए, वे गलत र्तकों का सहारा लेते हैं। अगले 15 सालों में हम अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश होंगे। बेशक देश को संपन्नता चाहिए लेकिन आर्थिक तौर पर शक्तिशाली देश होने के लिए जरूरी है कि देश बाकी क्षेत्रों में भी ताकतवर हो। याद रखिए कि चाहे रणनीतिक क्षमता हो या खेतीबाड़ी का मामला, राष्ट्रीय सुरक्षा हो या बेहतर जीवन स्तर का मसला- सभी चीजें विज्ञान और उन्नत तकनीक के इस्तेमाल से ही निखरती हैं। हमें इस रूप में विज्ञान की अहमियत समझनी होगी। यह समझना होगा कि अंतरिक्ष कार्यक्रम सिर्फ ब्रह्मांड के रहस्यों से परदा हटाना नहीं बकि वह जरिया है जिससे विकास के अन्य पहलुओं को भी लाभ होता है। फिर हमारी तकनीक सबसे सस्ती है। हमने अपनी जरूरतों के आधार पर कम पैसे में ज्यादा कामयाबी हासिल करने थी। यह महत्वपूर्ण तकनीक हमने विकसित कर ली है। भारतीय वैज्ञानिकों को इसके लिए भी शाबासी मिलनी चाहिए। हमारी सस्ती तकनीक को देखते हुए आगे संभव है कि दूसरे देश इसका लाभ लेना चाहें। हमारे द्वारा उनके लिए उपग्रह निर्माण के रास्ते खुलेंगे और इसका एक व्यावसायिक पक्ष भी होगा। हमारा मंगल मिशन एक विशाल परियोजना रही है। विश्व प्रोद्यौगिकी के विकास की प्रक्रिया में अपनी भूमिका बढ़ाने की इच्छा रखने वाले दुनिया के कई दूसरे देशों की तरह हम भी अंतरिक्ष अनुसंधानों की ओर अपना फोकस बढ़ा रहे हैं। दरअसल उच्च प्रौद्योगिकी संपन्न महाशक्तियों के बीच खड़े होने के लिए राष्ट्रीय अंतरिक्ष अभियान का होना बहुत जरूरी है। हमारा मंगल मिशन खगोलीय खोज कार्यक्रम का तार्किक विस्तार रहा है। हमने दुनिया के सामने किफायती मॉडल पेश कर दिया है। हमने अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में साझेदार बनने की योग्यता हासिल कर ली है। भविष्य में जब मंगल से जुड़े मानवयुक्त या अन्य महत्वपूर्ण मिशन पर अमल होगा तो निश्चित ही भारत नियंतण्र समुदाय का हिस्सा होगा। ऐसा स्वाभाविक तौर पर होगा क्योंकि हमने दिखा दिया है कि मंगल पर फतह करना हमारे वश की बात है। फिर यह याद रखने की जरूरत है कि हम अंतरिक्ष कार्यक्रम पर बजट का केवल शून्य दशमलव 34 ही खर्च करते हैं। और इसका भी अधिकांश हिस्सा दूरसंचार, दूरसंवेदी और दिशासूचक उपग्रहों के निर्माण पर खर्च हो जाता है। मंगल मिशन की बात करें तो इस बजट की भी केवल आठ प्रतिशत राशि इस निमित्त खर्च की गई। इस छोटी सी राशि को खर्च करने के कई फायदे हैं जिसका सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो विरोधियों की बोलती बंद हो जाएगी। आज आपदा प्रबंधन से लेकर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग तक में अंतरिक्ष अभियानों से फायदा पहुंचता है। आप सोचें कि केवल यह पता लग जाए कि आगे का मौसम कैसा रहेगा तो हम हर साल अरबों रपए के नुकसान से बच सकते हैं। यह नुकसान आपदाओं के रूप में तकरीबन हर साल सामने आता है। इस मामले में यह कहना कि भारत और चीन के बीच स्पेस रेस (अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा) कायम है, गलत होगा। हमें समझना चाहिए कि हर देश की अपनी अलग प्राथमिकता होती है। अंतरिक्ष अभियान की शुरुआत से ही भारत का लक्ष्य मूलभूत स्पेस अप्लीकेशन पर काम करना है। इस काम में भारत रोल मॉडल रहा है। जहां तक चीन की बात है, उसकी अपनी प्राथमिकताएं हैं। हम दूसरे के साथ दौड़ नहीं लगा रहे हैं। हमारी प्रतिस्पर्धा अपने आप से है कि कैसे निरंतर नई कामयाबी हासिल की जाए। भारत से पहले यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, अमेरिका और रूस मंगल पर उपग्रह भेज चुके हैं लेकिन सफल अभियान से पहले तीनों ने असफलता का मुंह देखा। चीन की बात करें तो 2011 में चीन का मंगल अभियान यंगहाउ-1 असफल रहा। इसी तरह जापान का मंगल अभियान 1998 में शुरू हुआ जो ईंधन की कमी के कारण असफल रहा। नासा 2016 में इनसाइट नाम से लैंडर मिशन मंगल पर भेजना चाहता है, ताकि वहां की अंदरूनी सतह की बनावट का खुलासा हो सके। रशियन फेडरल स्पेस एजेंसी और यूरोपियन स्पेस एजेंसी इस साल मंगल पर उपग्रह भेजने की जुगत में हैं। अगले चार सालों में ये दोनों वहां रोवक भेजने की तैयारी भी कर रहे हैं। रूसी अंतरिक्ष विज्ञानियों का मकसद तो मंगल पर कई मौसम केंद्रों का नेटवर्क बनाकर उस ग्रह के खास वायुमंडल की बारीकियां समझना है। अभी मंगल पर दो मिशन रोवर अपॉच्यरुनिटी और क्यूरॉसिटी मौजूद हैं। नासा के ये दो दोनों रोबोयान मंगल पर जीवन और पानी की मौजूदगी के संकेत खोज रहे हैं। भारत के मंगल अभियान का भी एक मकसद जीवन की खोज से जुड़ा है। लेकिन इसका असल मकसद है यहां पर मीथेन गैस की मौजूदगी का पता लगाना। मंगलयान यह जानकारी भी जुटाएगा कि उस ग्रह के गर्भ में खनिज हैं या नहीं। साथ ही वहां बैक्टीरिया की मौजूदगी है या नहीं इसका भी पता वह लगाएगा। हमारा मानना है विज्ञान और प्राद्यौगिकी जीवन को सार्थक और सहज बनाते हैं। मंगल मिशन को भी इसी प्रिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। विश्व में धाक जमाने जैसी बात नहीं होनी चाहिए। यह क्षेत्र ऐसा है जहां प्रतिस्पर्धा की नहीं सहयोग की जरूरत रही है। हम दुनिया का सहयोग लेने और सहयोग करने के आकांक्षी हैं। (लेखक इसरो के पूर्व प्रमुख हैं)
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मंगल की मंजिल

जनसत्ता 25 सितंबर, 2014: यह शायद दोहराने की जरूरत नहीं कि भारत के मंगल अभियान की शानदार कामयाबी अब इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो चुकी है। इस अभियान की सफलता देश की एक बड़ी उपलब्धि है। मंगल मिशन के सपने को सच करने की खातिर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी तमाम ऊर्जा और क्षमता झोंक दी, और इसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी। बुधवार को सुबह लगभग आठ बजे इसरो के मार्स आॅर्बिटर मिशन, यानी मंगलयान के मंगल की कक्षा में प्रवेश करते ही भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जिसने अपनी पहली ही कोशिश में यह कामयाबी हासिल की है। इससे पहले अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ अपने मंगल अभियानों में सफल हो चुके हैं, लेकिन कई-कई प्रयासों के बाद। अमेरिका को तो मंगल तक पहुंचने के लिए सात बार कोशिश करनी पड़ी थी। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि तब से अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में और प्रगति हुई है। उन सब अनुभवों से जिस तरह दूसरे देशों की अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थाओं ने सीखा होगा, उसी तरह इसरो ने भी। चंद्रमिशन के बाद अब मंगल मिशन के मंजिल तक पहुंचने से अंतरिक्ष अभियानों के क्षेत्र में भारत की हैसियत काफी बढ़ गई है। करीब पचास साल पहले केरल के थुंबा अंतरिक्ष केंद्र से छोड़े गए पहले रॉकेट से शुरू हुए सफर का यह नया अध्याय है। गौरतलब है कि पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीकल सी-25 की मदद से मंगलयान को पिछले साल पांच नवंबर को श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से रवाना किया गया था और वह सफलतापूर्वक एक दिसंबर को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण-सीमा से बाहर निकल गया था।
मंगलयान के लिए तय कामों में मंगल ग्रह पर जीवन के लिए संभावित संकेत मीथेन यानी मार्श गैस के सूत्र का पता लगाने के अलावा वहां के पर्यावरण की जांच शामिल है। इसमें लगाए गए कैमरे थर्मल इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर लाल ग्रह की सतह और उसमें मौजूद खनिज संपदा का अध्ययन कर आंकड़े जमा करेंगे। मंगल ग्रह के अध्ययन और वहां से आंकड़े जुटाने में सात अमेरिकी मिशन काम कर रहे हैं। वैज्ञानिक अध्ययन और उपलब्धियां किसी भी देश की हों, वे भविष्य के प्रयोगों में सबके काम आती हैं। जिस तरह अमेरिका के नासा की उपलब्धियों ने दुनिया भर के अंतरिक्ष अनुसंधान को आगे बढ़ने में मदद की है, उसी तरह इसरो की कामयाबी भी सिर्फ भारत के लिए मायने नहीं रखती, भले उसे व्यवसाय के मोर्चे पर भी बड़ा फायदा हो। संभव है कि कई देश अपने अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण के लिए भारत की ओर रुख करें।
कुछ मामलों में दूसरे देशों से मदद लेने के बावजूद भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी हद तक स्वदेशी और तुलनात्मक रूप से किफायती है। यह इस अभियान की एक और बड़ी खासियत है कि अमेरिका और रूस ने जहां अपने मंगल अभियानों के लिए काफी बड़े और महंगे रॉकेटों का प्रयोग किया, वहां भारत के इस अभियान पर महज साढ़े चार सौ करोड़ रुपए की लागत आई। जाहिर है, हमारे वैज्ञानिकों के सामने अपने इस अभियान के लिए जितनी भी संभावनाएं थीं, उसमें उन्होंने सबसे बेहतर और कम खर्चीले विकल्पों के साथ प्रयोगों के जरिए कामयाबी की कहानी रची। सवाल है कि इस रचनात्मकता, प्रयोगशीलता और प्रतिबद्धता का दायरा देश में विज्ञान शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती आदि क्षेत्रों तक क्यों नहीं फैलता दिखता? इसरो जैसा उद्यम अन्य वैज्ञानिक संस्थाओं में क्यों नजर नहीं आता? इस ऐतिहासिक दिन के गर्व-बोध के साथ इन सवालों पर भी हमें सोचना चाहिए।
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बुधवार की मंगलमय सुबह

25, SEP, 2014, THURSDAY

24 सितम्बर, बुधवार 2014 को भारत ने एक मंगल इतिहास रचा। इस धरती के पार जो दुनिया है, वह कैसी है? सौरमंडल में पृथ्वी के जो अन्य बंधु-बांधव हैं, उनमें भी क्या जीवन स्पंदित होता है? क्या वे मात्र तपती गैसों और पत्थरों से भरे पिंड हैं या जीवन की तरलता की कोई संभावना उनमें तलाशी जा सकती है? हमारे वेद-पुराणों में, कथाओं में ग्रह-नक्षत्र कई-कई भूमिकाओं के साथ उपस्थित होते हैं, लेकिन समूचे ब्रहांड में उनकी क्या भूमिका है? क्या कभी धरती पर रहने वाला मानव किसी अन्य ग्रह में बसने वाले अब तक कल्पित प्राणी से साक्षात्कार कर सकेगा? ऐसे ढेरों प्रश्न मानव मस्तिष्क में न जाने कब से कुलबुलाते रहे हैं? धरती के पार मानव ने यात्राएं की हैं, अंतरिक्ष के एक छोटे से हिस्से में अनुसंधान करने का गौरव भी हासिल किया है, लेकिन अंतरिक्ष असीम है और उसे जानने की जिज्ञासाएं भी असीम हैं। फिलहाल जिज्ञासाओं की अंतहीन कड़ी में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है भारत ने। मंगल ग्रह की कक्षा में भारत ने अपना पहला मंगल यान स्थापित करने में सफलता हासिल की है। खास बात यह है कि भारत विश्व का अकेला ऐसा देश है, जिसे अपने प्रथम प्रयास में ही यह विशेष सफलता हासिल हुई है। अब तक अमरीका, रूस और यूरोपीय संघ ने मंगल अभियान में सफलता प्राप्त की है, भारत इस संघ में चौथा देश बन गया है, यूं एशिया का वह पहला देश है जिसने मंगल अभियान में सफलता प्राप्त की। विश्व के अन्य अभियानों से अलग हमारी खासियत यह भी है कि यह मात्र 450 करोड़ रुपए के खर्च पर संचालित किया गया, और विश्व में सबसे सस्ता मंगल अभियान बन गया। इसी हफ्ते नासा से जो मंगल अभियान संचालित हुआ, उसकी लागत इससे दस गुना है। अर्थात भारतीयों ने यह साबित कर दिया कि वे सफल वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ-साथ वैज्ञानिक अर्थशास्त्र में भी सर्वश्रेष्ठ हैं। भारत की इस ऐतिहासिक सफलता पर हरेक देशवासी का प्रसन्न होना स्वाभाविक है। जो लोग मंगल को एक ग्रह के नाम से अधिक नहींपहचानते और जो इसका खगोलीय महत्व समझते हैं, ऐसे हर वर्ग के लोग इस अभियान के सफल होने पर गर्व महसूस कर रहे हैं। निस्संदेह इसका सारा श्रेय हमारी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी इसरो को जाता है, जिसके वैज्ञानिकों ने दिन-रात के अथक परिश्रम से एक असंभव लगने वाले कार्य को संभव बना दिया। 
बुधवार की सुबह यह देखना रोचक था कि जो टीवी न्यूज चैनल सुबह का वक्त धार्मिक प्रवचनों, राशि के आधार पर भविष्यफल, अज्ञात भयों को दूर करने के लिए बाबाओं के टोने-टोटके आदि के लिए आरक्षित रखते हैं, उनमें बड़ी-बड़ी माला और उंगलियों में दस-बीस अंगूठियां धारण किए बाबाओं की जगह वैज्ञानिकों के दर्शन हुए। समाचार प्रस्तोता इन वैज्ञानिकों से मंगल अभियान की चर्चा कर रहे थे। अपने साथ-साथ दर्शकों की जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे कि यह अभियान क्यों शुरु हुआ? इससे क्या लाभ मिलेंगे? तरल इंजन क्या है? यान को कितनी दूरी का सफर करना है? इस अभियान में कितना वक्त लगा? पृथ्वी से इसका संपर्क कैसे स्थापित होगा? ऐसे कई प्रश्नों का जवाब चैनलों में बैठे वैज्ञानिकों ने आसान भाषा में दिए और विज्ञान के बारे में एक नया नजरिया विकसित करने में मदद की कि यह जटिल नहींहै, ठीक से समझाया जाए तो आसान ही है। यह ठीक है कि जो बिकता है, वही दिखाना चैनलों की व्यावसायिक मजबूरी है, लेकिन एक जुमला यह भी है कि जो दिखता है, वह बिकता है। क्या ऐसा नहींहो सकता कि वैज्ञानिक सोच के प्रसार को मात्र दूरदर्शन की जिम्मेदारी न मानकर निजी चैनल भी अपने 24 घंटों के कार्यक्रम में कुछ समय विज्ञान चर्चा के लिए समर्पित करें। इससे देश में निश्चित ही एक नयी वैज्ञानिक सोच को बल मिलेगा। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मौके पर चौका मारने में उस्ताद हैं। इसरो की इस बड़ी सफलता पर वे वहां उपस्थित हुए ही, उनकी उपस्थिति को देश भर में बच्चे देखें, यह भी सुनिश्चित किया गया। जब मंगल यान ने सफलतापूर्वक पृथ्वी से संपर्क स्थापित किया जो वहां उपस्थित वैज्ञानिकों के साथ उन्होंने ताली बजाई और उसके बाद चिरपरिचित अंदाज में बधाई देते हुए भाषण दिया। इस भाषण में पुरुषार्थ, सिद्धि, विश्वगुरु भारत, गुरु-शिष्य परंपरा जैसे शब्द आए। वैज्ञानिकों को उन्होंने समझाया कि तैरना हो तो पानी में उतरना ही पड़ता है, जोखिम उठाने से घबराना नहींचाहिए, आदि। आर्यभट्ट, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी उन्होंने याद किया। शायद इस देश में आजादी के बाद विज्ञान की शिक्षा और वैज्ञानिक शोध, अनुसंधान को बढ़ावा देने वाले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम वे भूल गए। प्रसंगवश पाठकों को यह स्मरण करा दें कि मंगल अभियान 5 नवंबर 2013 को प्रारंभ हुआ था, इस परियोजना को तत्कालीन यूपीए सरकार ने मंजूरी दी थी और देश में छाए आर्थिक संकट के बावजूद देश में विज्ञान के बेहतर भविष्य के लिए इसमें आगे बढऩे का हौसला वैज्ञानिकों को दिया था।

हॉकिंग की नई चेतावनी




हॉकिंग की नई चेतावनी

नवभारत टाइम्स | Sep 9, 2014,

गॉड पार्टिकल की खोज के बाद सृष्टि का सबसे बुनियादी रहस्य जानने को लेकर पैदा हुई आशा चर्चित ब्रिटिश साइंटिस्ट स्टीफन हॉकिंग की ओर से आई चेतावनी के बाद आशंका में बदल सकती है। हॉकिंग ने जल्द ही प्रकाशित होने जा रही किताब 'स्टारमस' की भूमिका में कहा है कि गॉड पार्टिकल को लेकर जो प्रयोग किए जा रहे हैं, उनमें पूरे ब्रह्मांड को नष्ट कर देने की क्षमता है। हॉकिंग के मुताबिक गॉड पार्टिकल को अगर हाई टेंशन पर रखा जाए तो कैटस्ट्रॉफिक वैक्यूम डिके (अनर्थकारी शून्य ह्रास) पैदा हो सकता है। यानी इससे कुछ ऐसे बुलबुले तैयार हो सकते हैं, जिनके लपेटे में आकर पूरा ब्रह्मांड ही शून्य बन जाए। हॉकिंग की इस चेतावनी को फिलहाल सिद्धांत रूप में ही लिया जा रहा है, और इसको इसी तरह लिया भी जाना चाहिए। हॉकिंग ने भी कहा है कि जिस स्थिति की चेतावनी उन्होंने दी है, उसके निकट भविष्य में घटित होने के कोई आसार नहीं हैं। इन स्थितियों के लिए गॉड पार्टिकल को ऊर्जा के जिस स्तर पर रखना होगा, उसके लिए पृथ्वी से भी बड़े ऐक्सीलरेटर की जरूरत पड़ेगी। जाहिर है, मौजूदा हालात में स्टीफन के बताए खतरों से घबराने की जरूरत नहीं है। मगर, गॉड पार्टिकल की खोज के वक्त हम देख चुके हैं कि कैसे मीडिया का एक हिस्सा इसे ईश्वर की खोज बताने पर आमादा था। ऐसे में यह नामुमकिन नहीं कि हॉकिंग की चेतावनी का इस्तेमाल कुछ विज्ञान विरोधी ताकतें लोगों को बरगलाने में करने लगें। जब भी विज्ञान किसी बेहद महत्वपूर्ण खोज की दहलीज पर पहुंचता है, समाज का एक हिस्सा प्रकृति से छेड़छाड़ के कथित खतरों और नैतिकता के गढ़े हुए मानकों के सहारे उस पर अंकुश लगाने की कोशिश करता है। बहरहाल, हॉकिंग की यह एक महान उपलब्धि रही है कि उन्होंने भौतिकी की सीमावर्ती खोजों को आम लोगों के बीच लोकप्रिय बनाया है। उनकी 'अ ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' की गिनती दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली नॉन फिक्शन पुस्तकों में होती है। उम्मीद करें कि उनकी लिखी प्रस्तावना के साथ आ रही यह किताब क्वांटम मेकेनिक्स में जारी नवीनतम काम को लोकप्रिय विमर्श का हिस्सा बनाएगी। 
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चेतावनीः हमें तबाह न कर दें गॉड पार्टिकल्स

नवभारत टाइम्स | Sep 8, 2014,

भौतिकी और ब्रह्मांड विज्ञान के मशहूर प्रफेसर स्टीफन हॉकिंग ने दुनिया को चेतावनी दी है कि जिस 'गॉड पार्टिकल्स' ने सृष्टि को स्वरूप और आकार दिया है, उसमें पूरी दुनिया को खत्म करने की भी क्षमता है। प्रफेसर हॉकिंग की संडे टाइम्स को दी इस रिपोर्ट ने विज्ञान जगत में खलबली मचा दी है। वैज्ञानिक इस विषय को लेकर काफी रोमांचित हैं। हॉकिंग का कहना है कि अगर वैज्ञानिक गॉड पार्टिकल्स को हाई टेंशन (उच्च तनाव) पर रखेंगे तो इनसे 'कैटास्ट्रॉफिक वैक्यूम' तैयार होगा। यानी इससे बुलबुलानुमा गैप तैयार होंगे। इससे ब्रह्मांड में गतिमान कण टूट-टूटकर उड़ने लगेंगे और आपस में टकराकर चूर-चूर हो जाएंगे। हालांकि भौतिकविदों ने इस मसले को आपदा की आशंका मानकर किसी तरह का प्रयोग नहीं किया है। लेकिन प्रफेसर हॉकिंग ने दुनिया के वैज्ञानिकों को सचेत जरूर किया है। सैद्धांतिक भौतिकीविदों ने हिग्स बॉसन के बारे में लिखा है कि उनकी नई किताब स्टारमस में नील आर्मस्ट्रॉन्ग, बज़ एलड्रीन, क्वीन गिटारिस्ट ब्रायन मे आदि के लेक्चर्स का चयन है। इसी साल नवंबर में यह किताब आने वाली है। इसमें भी गॉड पार्टिकल्स से जुड़ी जानकारियां होंगी। यूनिवर्स की हर चीज (तारे, ग्रह और हम भी) मैटर यानी पदार्थ से बनी है। मैटर अणु और परमाणुओं से बना है और मास वह फिजिकल प्रॉपर्टी है, जिससे इन कणों को ठोस रूप मिलता है। मास जब ग्रैविटी से गुजरता है, तो वह भार की शक्ल में भी मापा जा सकता है, लेकिन भार अपने आप में मास नहीं होता, क्योंकि ग्रैविटी कम-ज्यादा होने से वह बदल जाता है। मास आता कहां से आता है, इसे बताने के लिए फिजिक्स में जब इन तमाम कणों को एक सिस्टम में रखने की कोशिश की गई तो फॉर्म्युले में गैप दिखने लगे। इस गैप को भरने और मास की वजह बताने के लिए 1965 में पीटर हिग्स ने हिग्स बोसोन या गॉड पार्टिकल का आइडिया पेश किया।
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ब्रह्मांड  का अंत, तुरंत

14-09-14 06:

स्टीफन हॉकिंग हमारे दौर के सबसे प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैं और उनका कोई भी बयान चर्चित हो जाता है। हॉकिंग सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री हैं और उन्हें अपने सैद्धांतिक ज्ञान के आधार पर ऐसी बातें करने में महारत हासिल है, जिसकी आम लोगों में भी चर्चा हो जाए। अपनी नई किताब स्टारमस की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है कि हिग्स-बोसोन या कथित गॉड पार्टिकल किसी भी क्षण दुनिया को नष्ट कर सकता है। हिग्स-बोसोन की परिकल्पना वैज्ञानिक पीटर हिग्स और उनके साथियों ने साठ के दशक के शुरू में की थी और सन 2012 में इसके अस्तित्व का प्रायोगिक साक्ष्य मिला। बहुत साल पहले हिग्स-बोसोन को एक वैज्ञानिक ने लगभग मजाक में गॉड पार्टिकल कह दिया था, क्योंकि परिकल्पना के मुताबिक वह दुनिया में हर कहीं है, लेकिन दिखता नहीं है, तब से उसका नाम ज्यादा चर्चित हो गया। हिग्स पार्टिकल दुनिया के अस्तित्व के लिए बहुत जरूरी है, क्योंकि यह तमाम सूक्ष्म कणों को भार प्रदान करना है। हॉकिंग के विचार को संक्षेप में और सरल ढंग से यूं समझा जा सकता है कि हिग्स-बोसोन पूरी दुनिया में समान रूप से व्याप्त है और इसका भार भी काफी ज्यादा है, यह प्रोटोन से 126 गुना ज्यादा भारी होता है। वैज्ञानिक सन 2012 में इसकी खोज के बहुत पहले से यह मानते थे कि इतने भारी कण के होने का अर्थ है कि अत्यंत निम्न ऊर्जा स्थितियों का भी अस्तित्व है। कोई भी चीज स्वाभाविक रूप से सबसे निचली स्थिति तक जाती है, जैसे अगर कोई गेंद पहाड़ी से लुढ़का दी जाए, तो वह सबसे निचली सतह पर जाकर रुकेगी। किसी भी व्यवस्था की प्रवृत्ति निम्नतम ऊर्जा स्थिति तक जाकर स्थिर होने की होती है। हिग्स-बोसोन और एक अन्य बुनियादी कण टॉय क्लार्क के संतुलन से यह ब्रह्मांड बना हुआ है। किसी वजह से यह संतुलन बिगड़ जाए, तो वह निम्नतम ऊर्जा स्तर पर पहुंच जाएगा और क्षण के एक छोटे-से हिस्से में पूरी तरह गायब हो जाएगा। यह प्रक्रिया कहीं एक जगह शुरू होगी और प्रकाश की गति से पूरे ब्रह्मांड में फैल जाएगी। सैद्धांतिक रूप से ऐसा हो सकता है। वैज्ञानिक नजरिये से ब्रह्मांड बना भी ऐसे ही एक सेकंड के कुछ अरबवें हिस्से में था। लेकिन इसकी आशंका कितनी है, यह सोचने की बात है। यह दुनिया तमाम किस्म की असंतुलित और अधूरी व्यवस्थाओं से मिलकर बनी है, जिनमें कभी भी कुछ भी होने की संभावना या आशंका रहती है। आशंका यह भी है कि कोई खतरनाक वायरस अचानक पैदा हो और सारे जीवन को नष्ट कर दे। स्टीफन हॉकिंग ने एक बार इस खतरे की भी बात की थी। यह भी डर है कि कभी कृत्रिम बुद्धिमत्ता से लैस मशीनें इंसान के काबू से बाहर हो जाएं। ये सारी आशंकाएं भी बेबुनियाद नहीं हैं। दुनिया और जीवन को सिर्फ भौतिकी के नियम या उनकी निश्चितता नहीं चलाती। हम लगातार अनिश्चितता और खतरों के बीच इसीलिए चलते जाते हैं, क्योंकि हमें जीवन के आधारभूत तत्व के बने रहने का भरोसा रहता है। व्यावहारिक जीवन में अगर किसी घटना के होने की संभावना एक निश्चित प्रतिशत से ज्यादा हुई, तभी हम उसके होने की संभावना पर विचार करते हैं। दुनिया में फिलहाल प्रदूषण से पैदा घातक बीमारियों के फैलने या परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का खतरा ज्यादा है। यहां तक कि सड़क दुर्घटना में मौत होने का खतरा हिग्स-बोसोन से दुनिया के नष्ट होने के खतरे से कहीं ज्यादा है। हॉकिंग का कथन दार्शनिक चिंतन के लिए एक आधार हो सकता है, फिलहाल हिग्स-बोसोन के खतरे से दुनिया को बचाने की फिक्र करना बेमानी है।

डॉट भारत डोमेन नेम के मायने




डॉट भारत डोमेन नेम के मायने

टेक्नोर्वल्ड

बालेन्दु शर्मा दाधीच
आखिरकार देवनागरी लिपि में ‘डॉट भारत’ नाम से इंटरनेट डोमेन लांच हो गया है। वास्तव में, इसका भाषा से नहीं बल्कि लिपि से संबंध है। ऐसी सभी भाषाओं, जिनमें देवनागरी लिपि का प्रयोग किया जाता है, में अब इंटरनेट पर इस्तेमाल होने वाले वेब पते अर्थात यूआरएल इस्तेमाल किए जा सकते हैं । मिसाल के तौर पर राष्ट्रीयसहारा.भारत। यह एक डोमेन नेम है, जो देवनागरी लिपि में है। इसका अर्थ यह हुआ कि इस नाम से रजिस्र्टड कराई गई वेबसाइट को खोलने के लिए आपको अपने इंटरनेट ब्राउजर में, जहां आप वेब पता लिखते हैं (जैसेध््रध््रध््र. न्ठ्र्ठण्दृदृ.ड़दृथ््र), वहां अंग्रेजी (लैटिन कैरेक्टरों) की बजाय देवनागरी में पता लिखने की छूट होगी। लेकिन सिर्फ उन्हीं वेबसाइटों का, जिन्होंने अपना देवनागरी डोमेन नेम रजिस्टर करवाया हुआ है, यूनिकोड और यूटीएफ-8 नामक इनकोडिंग पण्रालियों के आने के बाद यह कोई बहुत बड़ी चुनौती नहीं रह गई थी। हालांकि, फिर भी हमें इस मुकाम तक पहुंचने में परियोजना की शुरुआत के बाद तीन साल लग गए। कुछ तो सरकारी औपचारिकताओं की देरी है और कुछ देवनागरी की अपनी विशिष्ट प्रकृति की वजह से पैदा समस्याएं। जैसे- हम ‘पंडित’ शब्द को ‘पन्डित’ या ‘पण्डित’ के रूप में भी लिखते हैं। अब इस नाम से डोमेन नेम रजिस्टर करवाने पर इन्हें तीन अलग-अलग नाम माना जाए या फिर एक? एक मजेदार बात यह कही जा रही है कि ऐसे डोमेन नेम हिन्दी, कोंकणी और मराठी समेत आठ भाषाओं में खुलेंगे। असल में, भाषा के आधार पर डोमेन पंजीकरण नहीं हो सकता क्योंकि यदि एक ही शब्द अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल होता है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस शब्द को देवनागरी का प्रयोग करने वाली उन सभी भाषाओं में अलग-अलग पंजीकृत करवाया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मुंबई.भारत को आप हिन्दी में अलग और मराठी में अलग से पंजीकृत करवा सकें, इसकी संभावना नहीं है। वह सिर्फ एक बार और सिर्फ देवनागरी लिपि में ही पंजीकृत होगा। इससे लाभ क्या होगा? पहला यह कि आपको अपने इंटनरेट ब्राउजर में भारतीय भाषाओं के नामों की अं ग्रेजी स्पेलिंग लिखने के झंझट से छुटकारा मिलेगा, जिसमें प्राय: लोग गलती कर जाते हैं। दूसरे, ब्राउजर में पूर्णत: हिन्दी या देवनागरी देखने की आजादी होगी- वेब पते से लेकर पेजों तक। तीसरे, ऐसे लोग जो अंग्रेजी के साथ तालमेल नहीं बिठा पाते, देवनागरी के डोमेन नेमों वाली वेबसाइटों का आसानी से इस्तेमाल कर सकेंगे। लेकिन हां, विदेशों के लोगों को जो देवनागरी नहीं जानते, ऐसी वेबसाइटों तक पहुंचने में दिक्कत हो सकती है। इसलिए बेहतर होगा, कि वे देवनागरी के साथ लैटिन कैरेक्टर्स में भी डोमेन नेम दर्ज करवाएं। इंटरनेट गांवों तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की निजी दिलचस्पी से केंद्र सरकार ने डिजिटल तकनीकों के क्षेत्र में बड़े अभियान की शुरुआत की है। यूं भारत की सभी ग्राम पंचायतों तक इंटरनेट पहुंचाने का लक्ष्य नया नहीं है लेकिन केंद्रीय संचार और प्रौद्यो गिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद को लगता है कि प्रधानमंत्री के निजी दबाव के कारण नई सरकार के दौर में यह काम जल्दी पूरा हो जाएगा। मार्च 2017 तक देश के ढाई लाख ग्राम पंचायतों को हाईस्पीड ब्रॉडबैंड से जोड़ने का लक्ष्य रखा गया है। इस योजना की लागत करीब 35 हजार करोड़ रुपये है। इसके तहत नेशनल ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क (एनओएफएन) के माध्यम से इस साल 60 हजार गांवों को ब्रॉडबैंड से जोड़ा जाएगा, जबकि अगले साल एक लाख गांवों को जोड़ा जाएगा। पिछली सरकार ने इस मद पर जो बजट रखा था, उसे सरकार ने बढ़ा दिया है और परियोजना को पूरा करने की तिथि दिसम्बर, 2016 कर दी गई है। एप्पल के बड़े लांच की तैयारी आईटी और दूरसंचार उपकरणों के क्षेत्र की अग्रणी कंपनी एप्पल नौ सितम्बर को एक बड़ा लांच करने जा रही है। कार्यक्रम के निमंतण्रपत्र भी भेजे जा चुके हैं लेकिन जैसी की एप्पल की परंपरा है, उस दिन कौन-सा उत्पाद आने वाला है। इसका सौ फीसदी सही जवाब कोई नहीं दे सकता। वह उसी दिन पता चलेगा। बहरहाल, आईटी क्षेत्र के संकेतों के मुताबिक, उस दिन एप्पल का आईफोन 6 लांच हो सकता है। उसके साथ-साथ कंपनी का कोई नया, क्रांतिकारी किस्म का वियरेबल उत्पाद भी, जैसे कोई स्मार्ट घड़ी। इंतजार कीजिए और देखिए। डिजिटल भारत : बड़े लक्ष्य सरकार अपने डिजिटल भारत कार्यक्रम के तहत विभिन्न आईटी और दूरसंचार परियोजनाओं पर भी 69,524 करोड़ रुपये का शुरुआती निवेश करने जा रही है। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंदीदा परियोजना है। सरकार ने ऐसे 42,300 गांवों जिनके पास किसी तरह का नेटवर्क नहीं है, को मोबाइल कनेक्टिविटी प्रदान करने के लिए 16,000 करोड़ रुपये की राशि रखी है। इन गांवों में मोबाइल कनेक्टिविटी 2018 तक उपलब्ध कराई जाएगी। सरकार ने 15,686 करोड़ रुपये की लागत से राष्ट्रीय सूचना ढांचे के गठन का भी फैसला किया है। इस परियोजना के तहत मौजूदा कार्यक्रम मसलन नेशनल नॉलेज नेटवर्क और एनओएफएन का एकीकरण किया जाएगा। ई-कॉमर्स पोर्टल पर बिकेंगे घर टाटा वैल्यू होम्स ने अपने मकानों की ऑनलाइन बिक्री के लिए ई-कॉमर्स कंपनी स्नैपडील के साथ समझौता किया है जिसके तहत इस ई-कॉमर्स पोर्टल पर अब आम-फहम चीजों के साथ-साथ मकान और फ्लैट भी बिकेंगे। टाटा ने सर्वे कराया था जिससे पता चला कि प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति रियल एस्टेट के लिए ऑनलाइन खोज करता है। इस कंपनी ने प्रयोग के तौर पर अपनी वेबसाइट के जरिए मकान बेचना शुरू किया था। छह सौ मकानों की सफल बिक्री के बाद अब उसे यकीन है कि ई-कॉमर्स पोर्टल पर मोबाइल और घड़ियों के साथ- साथ मकान भी बेचे जा सकते हैं। स्नैपडील से समझौते के तहत मुंबई, पुणो, अहमदाबाद, बेंगलुरू और चेन्नई में बने टाटा वैल्यू होम्स के करीब 1,000 घरों को स्नैपडील पर बिक्री के लिए रखा जाएगा। इसमें 1 बीएचके से 3 बीएच के वाले मकान होंगे। इनकी कीमत 18 से 70 लाख के बीच है। चल निकली मोटोरोला की रणनीति मोटोरोला ने स्मार्टफोन मोटो जी की बिक्री ऑनलाइन शुरू की थी। इसको सिर्फ फ्लिपकार्ट पर लांच किया गया और रिटेल दुकानों पर ये उपलब्ध ही नहीं था। मोटोरोला ने भारतीय ई-कॉमर्स बाजार पर बड़ा दांव लगाया था लेकिन यह दांव सही पड़ा और मोटो जी खूब बिका। इस तरीके में खर्च भी कम है और झंझट भी। रास्ते में बहुत लोगों की मौजूदगी न होने से मुनाफा ज्यादा है। ऐसे में, दूसरी कंपनियां भी यही रास्ता अपनाने के लिए प्रेरित हो रही हैं। जियाओमी, एसस और अल्काटेल जैसी दूसरी कंपनियों ने इसी तरह का मॉडल अपनाया और फ्लिपकार्ट और स्नैपडील जैसी चुनिंदा ई-कॉमर्स फर्मो के जरिये अपने फोन बाजार में उतारे। मोटोरोला नया उत्पाद भी ऑनलाइन ही पेश करने जा रही है। इसी हफ्ते ओप्पो इंडिया ने अपने स्मार्टफोन की ऑनलाइन बिक्री के लिए घरेलू ई-कॉमर्स कंपनी फ्लिपकार्ट के साथ गठबंधन किया है। फ्लिपकार्ट अपनी वेबसाइट पर ओप्पो एन1 और नवीनतम 4जी स्मार्टफोन ओप्पो फाइंड 7 समेत देश में अब तक पेश की गई संपूर्ण रेंज की पेशकश करेगी।

विज्ञान और रहस्य




फिजूलखर्ची और सृजन

:27-07-14

विज्ञान और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में तरक्की के बावजूद प्रकृति का ज्यादातर कामकाज अब भी हमारे लिए रहस्यमय है। मसलन, वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि मानवीय डीएनए का लगभग आठ प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है, शेष बचा हुआ 92 प्रतिशत निष्क्रिय रहता है। पहले यह माना जाता था कि लगभग 80 प्रतिशत डीएनए किसी न किसी रूप में उपयोगी है, लेकिन ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर लगभग 90 प्रतिशत डीएनए न हो, तब भी जीवन का कामकाज चलता रहेगा। यह 90 या 92 प्रतिशत डीएनए वह है, जो करोड़ों साल की विकास यात्रा में कभी काम आया होगा, लेकिन अब नहीं है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए वैज्ञानिकों  ने अन्य जीवों के डीएनए के साथ मानव डीएनए का तुलनात्मक अध्ययन किया और उन जीन्स को पहचाना, जो जैव विकास यात्रा के दौरान साझा थे और अभी तक मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी का मतलब है कि वे उपयोगी हैं, तभी प्रकृति ने उन्हें बचाकर रखा है। कुछ वैज्ञानिकों ने निष्क्रिय जीन्स को ‘जंक जीन्स’ यानी कूड़ा कहा है, जो विकास यात्रा के दौरान इकट्ठा हो  गया है। लेकिन क्या यह सचमुच कूड़ा है? हमें अक्सर आश्चर्य होता है कि प्रकृति इतनी फिजूलखर्ची क्यों करती है? जब कुछ ही पौधे उगाने हैं, तो पेड़ इतने सारे बीज क्यों बिखेरते हैं? एक संतान पैदा करने के लिए अरबों शुक्राणु क्यों बनते हैं? लोगों को इस बात पर भी ऐतराज होता है कि नदियों का मीठा पानी समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाता है। इसी तरह यह भी एक सवाल है कि इतने सारे व्यर्थ के निष्क्रिय डीएनए क्यों हर मानव कोशिका के अंदर मौजूद हैं? उपयोगितावादी नजरिये से प्रकृति की इस फिजूलखर्ची को रोककर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश इंसान खास तौर पर आधुनिक समय में कर रहा है। हम फैक्टरी की तरह के मुर्गी फॉर्मो में मुर्गियों को पैदा कर रहे हैं। नदियों का पानी समुद्र में न जाए, इसलिए बांध बना रहे हैं। पौधों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उन्हें रसायन और कृत्रिम रोशनी दे रहे हैं। लेकिन इस नजरिये के नुकसान भी हैं, और ऐसा लगता है कि यह नजरिया प्रकृति के स्वभाव को न समझने की वजह से है। प्रकृति का मूल स्वभाव उत्पादन नहीं, सृजन है। उत्पादन का अर्थ है एक जैसी कई सारी चीजें पैदा करना, जबकि सृजन का अर्थ है कि अब तक जो नहीं हुआ, उसकी रचना करना। प्रकृति का हर सृजन इसीलिए अद्वितीय होता है। कहते हैं कि दो सूक्ष्मजीवी भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। यह विविधता प्रकृति के बने रहने के लिए जरूरी है। अगर सारे जीव एक जैसे होंगे, तो किसी एक संकट या एक बीमारी से सब मारे जाएंगे, विविधता बचे रहने की गारंटी है। सृजन के लिए विविधता का होना जरूरी है, तभी अलग-अलग तत्वों के मेल से नए-नए रूप बनेंगे। जो चीज प्रकृति में हमें व्यर्थ लगती है, वह हो सकता है कि उसके लिए काम की हो। कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि 92 प्रतिशत डीएनए बेकार नहीं हैं, उन्हें प्रकृति ने इसलिए बचाकर रखा है कि उसकी कभी जरूरत पड़ सकती है। वह हमारी संचित निधि है, कूड़ा नहीं है। अब मनुष्य प्रकृति के तर्क को फिर से समझने की कोशिश कर रहा है और यह देखा जा रहा है कि जो चीजें पहले बेकार या प्रकृति की फिजूलखर्ची लगती थीं, उनका कुछ उपयोग है और उन्हें नष्ट करने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया और कई दिक्कतें पैदा हो गईं। जीवन की विकास यात्रा का जो इतिहास हम मनुष्यों की कोशिकाओं में दबा पड़ा है, भविष्य में कभी हम उसे पढ़ पाएंगे और वह न जाने किस दौर में हमारी मानवता के काम आ जाए।
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बिना बोले संवाद

:31-08-14

वैज्ञानिकों ने एक व्यक्ति के मस्तिष्क में पैदा हुए विचारों को हजारों किलोमीटर दूर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की है। इसका अर्थ है कि अगर यह तकनीक विकसित हो जाए, तो किसी दूसरे व्यक्ति तक कोई बात पहुंचाने के लिए सिर्फ उस बात को सोचने की जरूरत होगी और दूसरे व्यक्ति का मस्तिष्क उसे ग्रहण कर लेगा। यह टेलीपैथी का एक वैज्ञानिक रूप कहा जा सकता है। सैद्धांतिक रूप से यह मुश्किल अवधारणा नहीं है। कोई मस्तिष्क जब कोई भी विचार करता है या दूसरा कोई काम करता है, तो उसमें मौजूद असंख्य कोशिकाओं में, जिन्हें न्यूरॉन कहते हैं, विद्युत चुंबकीय तरंगों द्वारा संदेश प्रसारित होता है। ये वैसी ही तरंगें हैं, जैसी रेडियो तरंगें होती हैं, सिर्फ इनकी आवृत्ति अलग होती है। इन मस्तिष्क तरंगों का लेखा-जोखा ईईजी या इलेक्ट्रोएंसेफेलोग्राम के जरिये देखा जा सकता है। किसी कंप्यूटर को ईईजी की रिकॉर्डिंग के लिए प्रोग्राम कर दिया जाए कि जब यह शब्द दिमाग में आए, तो ऐसा पैटर्न बनता है, या कोई दूसरा शब्द मस्तिष्क में आए, तो दूसरी किस्म का पैटर्न बनता है। इस जानकारी को यह कंप्यूटर रेडियो तरंगों या विद्युत चुंबकीय तरंगों में बदलकर संप्रेषित कर सकता है। इसी सिद्धांत के आधार पर मस्तिष्क तरंगों से चलने वाले वीडियो गेम चलते हैं। कंप्यूटर से संप्रेषित तरंगों को हजारों किलोमीटर दूर एक रिसीवर से ग्रहण करके फिर उन्हें कंप्यूटर के जरिये मस्तिष्क तरंगों में बदलकर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुंचाया गया। फिलहाल ईईजी के जरिये हम सारे दिमागी विचारों को नहीं पढ़ सकते, लेकिन बात निकली है, तो दूर तलक जा सकती है। यह वैसा ही है, जैसे टेलीफोन में ध्वनि तरंगों को ज्यादा ताकतवर विद्युत चुंबकीय तरंगों में बदलकर दूर तक पहुंचा दिया जाता है, जहां दूसरे टेलीफोन का रिसीवर उन्हें ग्रहण करके फिर ध्वनि तरंगों में बदल देता है। लेकिन हम सीधे मस्तिष्क तरंगों को क्यों नहीं दूसरे तक पहुंचा सकते? मस्तिष्क तरंगें बहुत हल्की और कमजोर होती हैं, तभी वे दूर तक संप्रेषित नहीं हो पातीं। उन्हें संप्रेषित करने के लिए किन्हीं शक्तिशाली तरंगों में बदलना जरूरी होता है, जैसे आवाज भी कुछ दूर तक ही जा पाती है। इसलिए उसे दूर संप्रेषित करने के लिए ध्वनि तरंगों को भी ज्यादा शक्तिशाली तरंगों में बदलना पड़ता है। अभी वैज्ञानिक जानकारी यहां तक ही पहुंची है, लेकिन मुमकिन है कि मस्तिष्क तरंगें उतनी कमजोर न भी होती हों, जितना हम मानते हैं या कुछ लोग उन्हें शक्तिशाली बनाने के तरीकों से जाने-अनजाने वाकिफ हों और इसीलिए वे दूसरों पर ज्यादा असर डालने में कामयाब होते हों। मस्तिष्क तरंगें, अन्य विद्युत चुंबकीय तरंगों की तरह ही हैं, हो सकता है कि एक व्यक्ति की शक्तिशाली मस्तिष्क तरंगें दूसरे के मस्तिष्क को बिना कुछ बोले प्रभावित कर दें। देखा गया है कि अन्य विद्युत चुंबकीय तरंगें मस्तिष्क तरंगों को प्रभावित करती हैं। हमारे मस्तिष्क के बहुत पास जो विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं, वे सेलफोन की तरंगें हैं। यह देखा गया है कि जब सेलफोन पर बात की जाती है, तो मस्तिष्क की अल्फा तरंगें सक्रिय हो जाती हैं, हालांकि इसका ठीक-ठीक महत्व क्या है, यह मालूम नहीं पड़ा है। बहरहाल, मुद्दा यह है कि वैज्ञानिकों ने दो शब्द एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक संप्रेषित करने में कामयाबी पाई है। अब दो से दो हजार शब्दों तक पहुंचना शायद सिर्फ वक्त की बात है। हालांकि यह भी याद रखना चाहिए कि बिना किसी टेक्नोलॉजी के दुनिया भर में दिल से दिल की बातें जो होती हैं, उनका महत्व असंदिग्ध है और हमेशा रहेगा।
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भविष्य का विज्ञान

:24-08-14 

दुनिया में ऐसे कट्टर बुद्धिवादी कम ही होते हैं, जो ज्योतिष पर कतई भरोसा नहीं करते, उनकी तादाद उतनी ही कम है, जितनी ऐसे लोगों की है, जो आंख मूंदकर ज्योतिष पर भरोसा करते हैं। बहुमत उनका है, जो सुविधा के अनुसार और प्रसंगानुसार ज्योतिष पर भरोसा करते हैं, यानी अच्छी भविष्यवाणियों पर भरोसा करते हैं और अप्रिय भविष्यवाणियों को नकार देते हैं। जब जरूरत होती है, तो ज्योतिष की ओर रुख करते हैं, और नहीं होती, तो ज्योतिष पर भरोसा न करने की घोषणा करते हैं। आम तौर पर माना जाता है कि विज्ञान और ज्योतिष का कोई मेल नहीं है। विज्ञान किसी भी बात को परीक्षण करने के बाद ही स्वीकारता या नकारता है, इसलिए ज्योतिष को लेकर भी कई अध्ययन हुए हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि ज्योतिष की बातें विज्ञान की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं, लेकिन कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि जन्म के वक्त का किसी इंसान के जीवन पर काफी असर हो सकता है। 1970 के दशक में हुए एक शोध का कहना था कि जन्म के महीने को लेकर व्यक्तित्व के बारे में जो बातें कही जाती हैं, वे काफी कुछ सही उतरती हैं। लेकिन इस शोध को लेकर काफी संदेह बने रहे। बाद में और ज्यादा अध्ययनों से यह पता चला कि भविष्यवाणियां ज्यादातर गलत होती हैं, लेकिन उनमें कुछ सच्चाई जरूर होती है। पश्चिमी देशों में हुए कुछ अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि जन्म के महीने से काफी सारी चीजें तय होती हैं। मसलन, यह पाया गया कि पतझड़ के महीने में पैदा हुए लोग ज्यादा स्वस्थ होते हैं और उनके दीर्घायु होने की संभावना काफी ज्यादा होती है या ज्यादातर पेशेवर बेसबॉल खिलाड़ी पतझड़ में पैदा होते हैं। यह भी देखने में आया कि सर्दियों में पैदा हुए व्यक्तियों की नजर अन्य मौसम में पैदा हुए व्यक्तियों से बेहतर होती है। एक काफी व्यापक अध्ययन में पाया गया कि सर्दियों और वसंत में पैदा हुए लोगों में मानसिक रोग होने की आशंका ज्यादा होती है। हो सकता है कि इन बातों की कुछ तार्किक वजहें हों। मसलन, पतझड़ के मौसम में पैदा हुए मनुष्य अपने जीवन के शुरुआती महीनों में कम बीमार होते हैं, जबकि सर्दियों में पैदा हुए लोगों में शुरू में ही बीमारियां झेलने की आशंका ज्यादा होती है, क्योंकि मौसम बीमारियों का होता है। इस शुरुआती स्वास्थ्य का असर जीवन में देर तक नजर आ सकता है। इस तर्क के हिसाब से भारत में सर्दियों में पैदा हुए बच्चों के दीर्घजीवी होने की संभावना ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि भारत में सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम यही होता है। यह भी हो सकता है कि इन बातों के पीछे और कुछ कारण हों, जिनका पता हमें न लगा हो। कुछ अध्ययन ऐसे हैं, जो बताते हैं कि जन्म के समय और व्यक्तित्व का कोई संबंध नहीं है। तो क्या यह मुमकिन है कि बावजूद तमाम सावधानियों के अध्ययन करने वालों का रुझान अध्ययन के निष्कर्षों को प्रभावित करता हो? अगर ऐसा नहीं है, तो समान सावधानियां बरतते हुए किए गए अध्ययनों के निष्कर्ष अलग-अलग क्यों होते हैं? अगर हम कट्टर तर्कवादी नहीं हैं, तो हम यह मानने पर मजबूर होते हैं कि इंसान को भविष्य का कुछ पूर्वाभास तो होता ही है। इसके प्रमाण हमें अक्सर मिलते रहते हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि ज्योतिष का शास्त्र दरअसल इस पूर्वाभास को आधार देने के लिए बना है। विज्ञान के काम करने की एक पद्धति है और उसे उसी पद्धति से आगे बढ़ना होता है। फिलहाल यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि विज्ञान का भविष्य या भविष्य का विज्ञान क्या है, सिर्फ हम हल्का-सा अंदाज ही लगाने में कामयाब हो सकते हैं।
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दिमाग का जीपीएस

नवभारत टाइम्स| Oct 8, 2014,

चिकित्सा के क्षेत्र में इस बार का नोबेल पुरस्कार न केवल इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का बल्कि सामान्य लोगों का भी उत्साह बढ़ाने वाला है। यह पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को लेकर उनकी महत्वपूर्ण खोज के लिए दिया गया है। इन तीनों वैज्ञानिकों के प्रयास न केवल इस अहम विषय के अलग-अलग पहलुओं से जुड़े रहे हैं, बल्कि वे कालखंड के हिसाब से भी एकदम अलग हैं। ब्रिटिश-अमेरिकी साइंटिस्ट जॉन ओ कीफे ने 1971 में अपने प्रयोगों के जरिए यह पता लगाया था कि दिमाग के एक खास हिस्से में सक्रिय 'प्लेस सेल्स' आसपास के इलाके का मैप तैयार कर लेते हैं। इसके बाद 2005 में इनके रिसर्च को आगे बढ़ाया नार्वे के साइंटिस्ट कपल मे ब्रिट मोजर और एडवर्ड मोजर ने। इन्होंने दिमाग के दूसरे हिस्से में सक्रिय 'ग्रिड सेल्स' का पता लगाया, जो आसपास की स्थितियों के साथ तालमेल बनाते हुए हमारा इधर-उधर जाना आसान बनाते हैं। दिमाग के काम करने के तरीके, खासकर ऊंचाई और गहराई की समझ बनाने की इसकी प्रक्रिया ने लंबे अर्से से विज्ञान जगत को उलझा रखा था। कई तरह की बीमारियों का इलाज और रोबॉट तथा कंप्यूटर जैसे क्षेत्रों में इनोवेशन की रफ्तार इस गुत्थी की वजह से थमी हुई थी। गौरतलब है कि स्थान की समझ बनाने से जुड़ी दिमागी प्रक्रिया पर केंद्रित इस रिसर्च के निष्कर्ष आगे चलकर लोगों, स्थितियों, सुगंधों और अनुभवों आदि के संदर्भ में भी खासे उपयोगी साबित हो सकते हैं। लेकिन अभी तो हाल यह है कि कीफे और मोजर दंपति के निकाले हुए नतीजे चूहों पर किए गए प्रयोगों पर आधारित हैं, इसलिए पहली चुनौती यह स्पष्ट करने की है कि इंसानी दिमाग भी ठीक उसी तरह कार्य करते हैं या नहीं। अगर जवाब हां में मिलता है तो आने वाले समय में यह रिसर्च याददाश्त बढ़ाने के असरदार उपाय खोजने से लेकर, दिमागी चोट का इलाज और बुढ़ापे में स्मरण शक्ति को मजबूत बनाने के आसान तरीकों की खोज तक में मददगार बनेगी। कौन जाने, इसका इस्तेमाल इंसान की तरह ही देश, काल, पात्र के हिसाब से उपयुक्त फैसले करने वाले रोबॉट बनाने में भी होने लगे।
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दिमाग का जीपीएस

07-10-14 08

नोबेल पुरस्कारों की घोषणा का मौसम आ गया है और सबसे पहले चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं की घोषणा हुई है। चिकित्सा का नोबेल तीन वैज्ञानिकों को मिला है। पुरस्कार विजेता हैं- यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रोफेसर जॉन ओ कीफ और नॉर्वे के दंपती एडवर्ड मोजर और मे-ब्रिट मोजर। नोबेल पुरस्कार के इतिहास में मोजेर पति-पत्नी चौथे दंपती हैं, जिन्हें यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है। सबसे पहले सन 1911 में विख्यात वैज्ञानिक दंपती मैरी क्यूरी और पियरे क्यूरी को साथ-साथ पुरस्कार दिया गया था। मैरी क्यूरी और पियरे क्यूरी की बेटी आइरेन जोलिएट क्यूरी और उनके पति फ्रेडरिक जोलिएट क्यूरी ने 1935 में रसायन शास्त्र का नोबेल हासिल किया था। इसके बाद गर्टी कोरी और कार्ल कोरी की जोड़ी को सन 1947 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। इस बार के विजेताओं को जिस खोज के लिए नोबेल दिया गया है, उसके फौरी लाभ तो नहीं हैं, क्योंकि उसके आधार पर जल्दी ही कोई दवा या इलाज की पद्धति नहीं खोजी जा सकती, लेकिन दूरगामी नजरिये से वह बहुत महत्वपूर्ण है।इन वैज्ञानिकों ने दिमाग में उस संरचना की खोज की है, जिससे जीव जगहों के बारे में अपना संज्ञान हासिल करते हैं, यानी इसे दिमाग का प्राकृतिक जीपीएस कहा जा सकता है। ओ कीफ सन 1971 में चूहों को लेकर प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने देखा कि चूहे को किसी एक जगह ले जाने पर उसके दिमाग की एक कोशिका में सक्रियता हो रही थी। उन्होंने देखा कि कमरे के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग कोशिकाओं में सक्रियता रिकॉर्ड हो रही थी। उन्होंने इसका अध्ययन किया और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ये कोशिकाएं कमरे का एक नक्शा दिमाग में बना रही थीं। जब उन्होंने अपनी खोज को प्रकाशित करवाया, तो आम तौर पर वैज्ञानिक समुदाय में उत्साह नहीं, बल्कि संदेह ही देखने में आया, क्योंकि तब यह नहीं माना जाता था कि ऐसी अलग-अलग कोशिकाएं यह काम कर सकती हैं। उनके काम के करीब तीन दशक बाद मोजर दंपती ने कोशिकाओं का एक पूरा तंत्र खोज निकाला, जो जगहों की जानकारी, उनकी एक-दूसरे से दूरी और दिशा का पूरा लेखा-जोखा रखता है। मोजर दंपती और ओ कीफ की उम्र में काफी फर्क है। ओ कीफ लगभग 75 साल के हैं और मोजर दंपती लगभग पचास की उम्र के। मोजर दंपती ओ कीफ के साथ काम कर चुके हैं, हालांकि जिस काम के लिए उन्हें नोबेल मिला है, वह उन्होंने स्वतंत्र रूप से किया है। इस खोज से यह जानने में मदद मिलेगी कि स्ट्रोक यानी दिमाग को खून की आपूर्ति अचानक बंद हो जाने से या अल्जाइमर जैसे रोगों में जगह व दिशा का ज्ञान क्यों प्रभावित हो जाता है? यह जानकारी इन बीमारियों के प्रभावी इलाज ढूंढ़ने में काम आ सकती है। इस तरह की खोजों के अन्य फायदे भी होते हैं। प्रकृति किसी भी नजरिये से मनुष्य से कई गुना ज्यादा बड़ी इंजीनियर है और उसके काम करने के तरीके समझकर वैज्ञानिक अपनी टेक्नोलॉजी बेहतर बनाते हैं या नई टेक्नोलॉजी विकसित करते हैं। पक्षियों के उड़ने से लेकर मकड़ी के जाले वैज्ञानिकों के लिए बेहतर टेक्नोलॉजी विकसित करने के प्रेरणा-स्रोत साबित हुए हैं। प्रकृति ने छोटे-से-छोटे जीव में जो जीपीएस विकसित कर रखा है, उसकी जानकारी दिशा और जगह बताने की हमारी तकनीकी प्रणाली को बेहतर बनाने में भी मदद कर सकती है। चिकित्सा विज्ञान और दिमागी बीमारियों को समझने और उनके इलाज विकसित करने में तो यह खोज बहुत ही उपयोगी साबित होगी।
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दिमाग की कसरत

:12-10-14

बहुत पुरानी मान्यता है कि ज्यादा कसरत करने से दिमाग मोटा हो जाता है। इन बातों में कितनी सचाई है? यह बात कुछ हद तक सही भी है और काफी हद तक गलत भी। कई ताजा शोध बताते हैं कि व्यायाम करने से दिमाग तेज होता है। जर्मनी में हुए एक अध्ययन ने यह बताया है कि जो उम्रदराज लोग हल्की कसरत करते हैं या बागवानी जैसे काम करते हैं, उन्हें बुढ़ापे के साथ होने वाली दिमागी समस्याएं कम होती हैं। एक और अध्ययन ने पाया कि नियमित रूप से टहलने वाले बुजुर्गों की एकाग्रता और दिमागी श्रम करने की क्षमता ज्यादा थी। लेकिन ऐसा ही नहीं है कि सिर्फ बजुर्गों को ही इससे फायदा होता है। अमेरिका में हुए एक शोध ने यह साबित किया है कि जो बच्चे नियमित रूप से ऐसे खेल खेलते हैं, जिनमें दौड़-भाग शामिल होती है, उनके दिमाग का विकास बेहतर ढंग से होता है। कुछ प्रयोगों ने यह दिखाया था कि अगर किसी परीक्षा के पहले बच्चे लंबा टहल लें, तो उनका प्रदर्शन बेहतर होता है, लेकिन ये सारे प्रयोग ऐसे नहीं थे, जिन्हें निर्णायक रूप से मान लिया जाए।

इसीलिए पिछले दिनों एक प्रयोग ज्यादा ठोस वैज्ञानिक ढंग से किया गया, ताकि इस बात की सही जांच हो सके।
वैज्ञानिकों ने आठ-नौ साल के 220 छात्रों को चुना। इस उम्र के छात्रों को चुनने का मकसद यह था कि इस उम्र में बच्चों में अपने विचारों को व्यवस्थित और क्रमबद्ध करने की क्षमता विकसित होती है। वैज्ञानिकों ने 110 बच्चों को सामान्य जीवन जीने दिया और बाकी बच्चों को स्कूल के बाद दो घंटे ऐसे खेल खेलने को कहा, जिसमें दौड़-भाग के अलावा बच्चे शोर-शराबा और मस्ती भी कर सकते थे। साल भर बाद बच्चों के दोनों समूहों का तुलनात्मक आकलन किया गया और नतीजा यह निकला कि जो बच्चे रोज खेलते थे, उनका दिमागी विकास बेहतर हुआ था। खासतौर पर दिमाग की एक क्षमता उनमें खास तौर पर बेहतर थी, जिसे ‘अवरोधक क्षमता’ कहते हैं, यानी बच्चे किसी बात पर विचार करते हुए अनावश्यक या अप्रासंगिक विचारों को बेहतर ढंग से हटा सकते थे।

उनकी तार्किक और व्यवस्थित ढंग से सोचने की क्षमता न खेलने वाले बच्चों से कहीं बेहतर विकसित हुई थी। हमारे देश में जो मां-बाप यह सोचते हैं कि बच्चों का खेलना वक्त बरबाद करना है, उन्हें शायद अब अपनी धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। वैज्ञानिक अब इस बात पर शोध कर रहे हैं कि शरीर के व्यायाम से दिमाग को कैसे फायदा होता है। उनका अनुमान यह है कि व्यायाम से शरीर में खून का संचार तेज होता है और इससे दिमाग को भी ज्यादा खून मिलता है, इसके अलावा व्यायाम से दिमाग के लिए फायदेमंद कुछ रसायन शरीर में ज्यादा बनते हैं, जिनसे दिमाग का विकास होता है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि बॉडी बिल्डरों का दिमाग सबसे तेज होता है। एक नजरिये से यह भी सच है कि शरीर का ज्यादा विकास दिमाग के विकास के लिए मुफीद नहीं है। इसकी भी वजह है। इंसानी दिमाग किसी भी जीव के दिमाग की बनिस्बत ज्यादा विकसित है।

विकास के क्रम में यह स्वाभाविक ही था कि इसको ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती, शरीर के अन्य अंगों की तुलना में इंसानी दिमाग की ऊर्जा की जरूरत बहुत ज्यादा होती है। वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि खाना पकाने का आविष्कार भी इसीलिए हुआ, ताकि दिमाग को ज्यादा पोषण आसानी से मिल सके। ऐसे में, अगर शरीर की ऊर्जा की जरूरत एक हद से ज्यादा बढ़ जाए, तो दिमाग को कम पोषण मिलने लगता है और उसका विकास कुछ बाधित होता है। इसलिए सार यह है कि कसरत से भले ही दिमाग तेज होता है, लेकिन किसी भी दूसरी चीज की तरह इसकी अति न की जाए।

विज्ञान और शोध




सुलझे तकनीक की गुत्थी

नवभारत टाइम्स| Aug 25, 2014,

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने आईआईटी संस्थानों के शीर्ष पदाधिकारियों से जो कहा है, उसे ध्यान में रखकर एक नई शुरुआत की जा सकती है। उन्होंने कहा कि देश की तकनीकी जरूरत पूरी करने में ये संस्थान अपनी भूमिका निभाएं और 'मेक इन इंडिया' या 'मेड इन इंडिया' की अवधारणा को जमीन पर उतारें। उन्होंने आईआईटी से देश में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर विचार करने को भी कहा। पिछले कुछ समय से आईआईटी की भूमिका को लेकर बहस छिड़ गई है। इनकी स्थापना के पीछे अवधारणा तकनीकी शोध को बढ़ावा देने की थी, जिससे देश के विकास के लिए जरूरी टेक्नॉलजी तैयार हो सके। पिछले दो-ढाई दशकों से इन संस्थानों का ढांचा कुछ ऐसा बन गया है कि एक तरफ ये अमेरिकी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए सस्ते प्रफेशनल्स सप्लाइ कर रहे हैं, दूसरी तरफ आईएएस के रूप में देश को काफी सारे नौकरशाह दे रहे हैं, जिनका तकनीकी विकास में रत्ती भर योगदान नहीं होता। इंजिनियरिंग के कई क्षेत्रों में पढ़ाई का सिलसिला ठप पड़ गया है। देश को मकान, सड़क, फ्लाईओवर और बंदरगाहों की जरूरत है, लेकिन आईआईटी में सिविल इंजिनियरिंग की ज्यादातर सीटें ही नहीं भरतीं। बिजली, तेल, खनन आदि के विशेशज्ञ नहीं मिल रहे क्योंकि आईआईटी में कोई इलेक्ट्रिकल या माइनिंग इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए तैयार नहीं है। इस साल आईआईटी में पहली काउंसलिंग के बाद 650 सीटें खाली रह गईं जबकि पिछली बार करीब 400 सीटें खाली थीं। वजह बस वही है- हर किसी को कंप्यूटर साइंस पढ़ना है, क्योंकि दूसरे सेक्टर में उस टक्कर की नौकरियां नहीं हैं। इस असंतुलन का संबंध सरकार की नीति से है। ग्लोबलाइजेशन के माहौल में जब से विदेशी चीजों के आयात ने जोर पकड़ा है, तब से दिनोंदिन मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का दम निकला जा रहा है, हालांकि इसको औद्योगीकरण की रीढ़ समझा जाता है। सिर्फ 'मेक इन इंडिया' कहने भर से काम नहीं चलेगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश करना होगा, कारखाने खोलने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराना होगा और विकास की प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। इससे इंजिनियरिंग छात्रों को अपने लिए कई क्षेत्रों में गुंजाइश बनती दिखेगी। और गहराई में उतरने के लिए सरकार को इन क्षेत्रों में शोध को बढ़ावा देने के उपाय करने होंगे। अभी तो छात्रों को बेसिक इंजिनियरिंग और फंडामेंटल साइंस में रिसर्च के लिए कोई प्रोत्साहन ही नहीं मिल रहा है। आला दर्जे के इंजिनियरों और वैज्ञानिकों के विदेश जाने की यह सबसे बड़ी वजह है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारे ही साइंटिस्ट दूसरे मुल्कों को तकनीकी रूप से समृद्ध कर रहे हैं, लेकिन हमें छोटी से छोटी तकनीक भी वहां से खरीदनी पड़ रही है। शोधकर्ताओं के लिए आर्थिक निश्चिंतता, आला दर्जे की रिसर्च लैब्स की स्थापना और अपने देश में विकसित होने वाली टेक्नॉलजी के व्यावसायिक इस्तेमाल की व्यवस्था ही इस बीमारी का अकेला कारगर इलाज है। तमाम आईआईटीज को मिलकर सरकार के सामने इस बदलाव का रोडमैप पेश करना चाहिए। सरकार अगर उसे अमल में उतार सकी तो उसके लिए यह इतिहास की धारा मोड़ने जैसी उपलब्धि होगी।
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साइंस का मोर्चा

Jan 9, 2013, 

भारत में साइंटिफिक रिसर्च का स्तर गिरते जाने की बात काफी समय से कही जा रही है, लेकिन इसे ऊपर उठाने की पहल इधर पहली बार ही सुनने में आई है। आईआईटी संस्थानों और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संयुक्त प्रयास से लिए गए कुछ फैसले आने वाले दिनों में विज्ञान-तकनीकी की दुनिया में देश को इज्जत दिला सकते हैं। भारत में हर साल लाखों इंजीनियर, डॉक्टर और विज्ञान की विविध शाखाओं के डॉक्टरेट स्कॉलर तैयार होते हैं, लेकिन उन्हें साइंस-टेक्नोलॉजी में किसी मौलिक योगदान के लिए नहीं जाना जाता। कई वजहें इसके पीछे हैं। सबसे बड़ी तो यही कि देश के सारे सपने अभी गाड़ी, बंगला, दौलत और पेज-थ्री टाइप शोहरत के ही इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। इस हल्ले में वैज्ञानिक या गणितज्ञ जैसे अपनी धुन में खोए व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं बचती। यह अचानक आई समृद्धि से चौंधियाए एक विकासशील देश की विडंबना है और इसके इलाज के लिए दस-बीस साल का वक्त बहुत कम है। बहरहाल, कुछ मामूली अड़चनें भी नई पीढ़ी को विज्ञान के कठिन रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक रही हैं। मसलन, कई छात्र इंजीनियरिंग और फंडामेंटल साइंस के पोस्ट ग्रेजुएशन की तरफ जाने की जहमत सिर्फ इसलिए नहीं उठाते, क्योंकि अंडरग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई के लिए उन्होंने जो एजुकेशन लोन ले रखा है, उसकी किश्तें बी.टेक. या बी.ई. की डिग्री हासिल करने के तुरंत बाद शुरू हो जाती हैं। यानी इंजीनियर बनने के एक साल के अंदर उन्होंने कोई ढंग की नौकरी नहीं पकड़ ली तो लेने के देने पड़ जाएंगे। नए उपायों में यह बात शामिल है कि पोस्ट ग्रेजुएशन या रिसर्च में दाखिला लेने वालों की लोन अदायगी या तो टाल दी जाएगी, या उनके लोन का एक हिस्सा सरकार अदा कर देगी। साइंस रिसर्च और इंजीनियरिंग पोस्ट ग्रेजुएशन के रास्ते में एक बहुत बड़ा रोड़ा इसके लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा 'गेट' का भी है। तीन घंटे के इम्तहान में तीस विषयों की महारत जांचने वाली इस कंटीली बाड़ की ऊंचाई कम करने के लिए दो उपाय सुझाए गए हैं। एक, एम.टेक., एम. ई. या डायरेक्ट रिसर्च के लिए गेट की बाधा अब सिर्फ उन छात्रों को पार करनी होगी, जिनका अंडरग्रेजुएशन के पहले तीन सालों का टोटल ग्रेड 7 से कम होगा। और दो, किसी भी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन कर रहा छात्र एक निश्चित योग्यता प्रदर्शित करने के बाद अपनी चौथे साल की पढ़ाई किसी आईआईटी संस्थान से कर सकेगा और इस तरह देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ रिसर्च फैसिलिटी का लाभ उठा सकेगा। इन, और कई अन्य उपायों के जरिये आईआईटी रिसर्च स्कॉलरों की संख्या मौजूदा 3,000 से बढ़ाकर 2020 तक 10,000 सालाना करने का लक्ष्य रखा गया है। भारत को एक वैज्ञानिक शक्ति बनाने में इन उपायों की कुछ भूमिका जरूर हो सकती है, लेकिन असल चुनौती देश का नजरिया बदलने की है, जिसके लिए कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे और सिर्फ सरकार को कोसने का इसमें कोई फायदा नहीं है 
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साइंस से ठिठोली हम कब छोड़ेंगे

नवभारत टाइम्स| Feb 26, 2014

शशांक द्विवेदी
2 दिन बाद देश भर में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाएगा। खूब भाषण होंगे, घोषणाएं होंगी, लेकिन विज्ञान और शोध में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए कहीं कुछ नहीं किया जाएगा। विज्ञान दिवस 'रमन इफेक्ट' खोजे जाने की याद में मनाया जाता है। 28 फरवरी, 1928 को भारतीय वैज्ञानिक प्रो. चंद्रशेखर वेंकटरमन ने कोलकाता में यह उत्कृष्ट खोज की थी। इसकी मदद से कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाया जाता है। इस खोज के लिए सर सीवी रमन को 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उस समय तक भारत या एशिया के किसी भी व्यक्ति को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था। रमन इफेक्ट की खोज के बाद हम उस दिशा में आगे कोई शोध नहीं कर पाए और रमन स्कैनर का विकास कहीं और किया गया।
खोज नहीं, पैसा
तब से अब तक 8 दशक गुजर चुके हैं। इतनी लंबी अवधि में देश में एक भी ऐसा वैज्ञानिक नहीं हुआ जिसे पूरी दुनिया उसकी अनोखी देन के कारण पहचानती हो। हमारी नियति भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही खुशी मनाने की हो गई है। आज हम भारत को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में कहां पाते हैं? कम से कम वहां तो नहीं, जहां इसे होना चाहिए। देश में विज्ञान और अनुसंधान पर चर्चा तभी होती है जब कोई नेता, मंत्री या स्वयं प्रधानमंत्री इसकी बदहाली पर बोलते हैं। वास्तविक धरातल पर देश में आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके। हालत यह है कि अधिकांश भारतीय युवा वैज्ञानिक खोज को अपने दायरे से बाहर मानने लगे हैं। साइंस-टेक्नॉलजी की पढ़ाई का मकसद बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊंचे पैकेज वाली नौकरी पकड़ने तक सिमट कर रह गया है।
इस सिलसिले को जारी रखते हुए पिछले दिनों जम्मू में हुई 101 वीं विज्ञान कांग्रेस भी सरकारी रस्म अदायगी का एक और सम्मेलन बन कर रह गई। रिसर्च-इनोवेशन के लिए कहीं भी कोई संजीदगी नहीं दिखी। मै खुद इस सम्मेलन में आमंत्रित वक्ता के रूप में शामिल था। वहां यह देखकर मुझे बहुत निराशा हुई कि केंद्र और राज्य सरकार के नुमाइंदों ने ऐसी एक भी बात नहीं कही, जिससे विज्ञान को लेकर उनकी गंभीरता जाहिर होती हो। पिछले दस वर्षों से प्रधानमंत्री पद संभाल रहे डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं एक विश्वविख्यात अकादमीशियन हैं, लेकिन विज्ञान कांग्रेस में वे 'विज्ञान' के बजाय 'कांग्रेस' के ही एजेंडे पर बोलते रहे। मसलन, सरकार ने इतने आईआईटी, एम्स और आईआईएम खोले। विज्ञान का बजट बढ़ाने के अलावा कुछ योजनाओं की भी घोषणा हुई, लेकिन उनका क्रियान्वयन कब और कैसे होगा इसकी कोई रूपरेखा नहीं बताई गई।
विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते डॉ. सिंह को एक जमाना गुजर चुका है। इतने समय में तो अपना वक्तव्य भी उन्हें याद हो गया होगा। लगभग हर बार ही वे विज्ञान के लिए बजट में जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने की बात कहते हैं। लेकिन हर बार विज्ञान कांग्रेस के महीने भर के भीतर पेश होने वाले बजट में इस घोषणा की कोई गंध तक नहीं मिलती। इस बार तो घोषणा और यथार्थ के बीच की दूरी और भी पहले जाहिर हो गई। पिछले दिनों संसद में पेश अंतरिम बजट में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने शोध और अनुसंधान के लिए सिर्फ 200 करोड़ रुपये आवंटित किए। सैम पित्रोदा के नेतृत्व में गठित नेशनल इनोवेशन कौंसिल से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन इस कौंसिल ने भी पिछले सालों में कोई बुनियादी सुधार नहीं किया।
खुद एक अर्थशास्त्री और शिक्षाशास्त्री रहते हुए डॉ. मनमोहन सिंह अगर विज्ञान के लिए कुछ नहीं कर पाए तो हालात सुधरने की उम्मीद भला किससे की जाए? दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक अपनी यूनिवर्सिटीज को देते हैं, लेकिन अपने देश में यह राशि सिर्फ छह प्रतिशत है। ऊपर से ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। इस संबंध में पूरी दुनिया से इकट्ठा की गई सूचनाओं के आधार पर आनी वाली खबरों से पता चलता है कि जो थोड़ी-बहुत रिसर्च देश में हो भी रही है, उसका स्तर कैसा है।
2020 का सपना
सरकारी प्रतिनिधि कोई भी मंच मिलने पर बड़ी शिद्दत से अपनी यह चिंता जाहिर करते हैं कि भारत के उच्च संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट अनुसंधान और शोध की तरफ आकर्षित क्यों नहीं होते। इसकी कई सारी वजहें होंगी, लेकिन सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुरक्षा है, जो फिलहाल सरकार या निजी क्षेत्र, किसी के भी एजेंडे पर नहीं है। देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। विज्ञान को आम आदमी से जोड़ना होगा। इसके बिना हमारे विश्वविद्यालय अभी की तरह आगे भी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें ही बने रहेंगे। सरकार ने भारत को 2020 तक दुनिया की पांच सबसे बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन मौजूदा नीतियों और सरकारी लालफीताशाही को ध्यान में रखें तो यह लक्ष्य लगभग असंभव है। 
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भारत में रिसर्च के मामले में

 ग्रोथ ग्राफ ठीक नहीं है

नवभारत टाइम्स| Dec 21, 2013

नोबेल पुरस्कार पाने में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के वैज्ञानिक अक्सर आगे क्यों रहते हैं या भारत में विज्ञान के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति न होने के क्या कारण हैं? ऐसे सवालों पर फिजिक्स में सन् 1997 में नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांस के वैज्ञानिक प्रोफेसर क्लाउड कोहेन तानोजी से एनबीटी के प्रमुख संवाददाता दिनेश चंद्र मिश्र ने बातचीत की। अस्सी बरस पार कर चुके प्रफेसर तानोजी का मानना है कि जिंदगी खुद एक रिसर्च है। रोजाना कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।
नोबेल पुरस्कार यूरोपियन वैज्ञानिकों को ही ज्यादा मिलने के पीछे क्या कारण है?
इन देशों में विज्ञान पर जितना काम होता है, दुनिया के शायद ही किसी अन्य देशों में होता हो। इसके पीछे बस यही कारण है। नोबेल पुरस्कार की प्रक्रिया पर सवाल उठाना गलत है। यह ऐसा सम्मान है, जिसको हर वैज्ञानिक पाने की चाह रखता है।
नोबेल रिसर्च के दौरान आपको किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा?
संघर्ष के मौके तो कई बार आए। हर वक्त मेरी पत्नी जैकलीन मेरा साथ देती रही। जब मैंने जैकलीन से शादी की, वह तीन बच्चों की मां थी। आज वही मेरे बच्चे हैं। जैकलीन ने मेरा लाइफ में हर मोर्चें पर मेरा साथ दिया है। मैं शुरू से रिसर्च में दिलचस्पी रखता था, इस कारण कोई खास परेशानी नहीं हुई।
आपको यह सम्मान किस रिसर्च पर मिला?
किसी तत्व के सबसे छोटे भाग को हम एटम कहते हैं। एटम के अंदर दो भाग होते हैं- प्रोटान और न्यूट्रान। इलेक्ट्रान इसके चारों ओर चक्कर लगाता है। एटम के प्रयोग के दौरान लेजर लाइट को ठंडा करने की तकनीक विकसित करने पर यह सम्मान सन् 1997 में मुझे मिला। इसको विज्ञान में कूलिंग एंड टैपिंग एटम्स थ्योरी के नाम से जाना जाता है। इसके बाद मुझे बहुत खुशी हुई कि मेरी मेहनत का फल मुझे मिला।
भारत के वैज्ञानिक क्या विश्वस्तरीय शोध में यूरोपियन वैज्ञानिकों से काफी पीछे हैं?
नोबेल पुरस्कार विज्ञान के जिन शोधों पर मिलता है, उनका स्तर बहुत ऊंचा होता है। इस रिसर्च पर जो खर्च आता है, वह किसी एक वैज्ञानिक के बस का नहीं होता। इसके लिए वहां की सरकार के साथ साइंस से जुड़ी संस्थाएं बहुत मदद करती हैं। भारत में ऐसे शोध बहुत कम हो पाते हैं। भारत के कई वैज्ञानिक रिसर्च के लिए यूरोपियन देशों में गए, वहां उनके काम को पूरी दुनिया ने खूब सराहा। सन् 2009 में कैमिस्ट्री का नोबेल प्राइज भारत के वैंकटरामन कृष्णन को मिला। अब वह अमेरिकन नागरिक हैं। भारतीय वैज्ञानिक दिमाग के मामले में अन्य देशों के लोगों से पीछे बिलकुल नहीं हैं, लेकिन यहां शोध के लिए सहूलियतें बहुत कम हैं।
कुल मिलाकर साइंस रिसर्च के क्षेत्र में आपकी नजर में भारत का क्या स्थान है?
भारत में साइंस रिसर्च के मामले में ग्रोथ ग्राफ ठीक नहीं है। मेरी नजर में यहां प्राइमरी स्टेज से साइंस पर फोकस करना काफी जरूरी है। यूरोपियन देशों में साइंस को प्राइमरी स्टेज से ही बढ़ावा मिलता रहा है। दूसरा कारण भारत में सामाजिक बंधन बहुत हैं। इससे विकास में अक्सर बाधा पैदा होती है। बहुतेरी महिलाएं साइंस के क्षेत्र में जाना भी चाहती हैं, लेकिन पारिवारिक बंधनों के कारण जा नहीं पातीं। भारत को साइंस पर गंभीरता और तेजी से ध्यान देना चाहिए।
अंतरिक्ष से मंगल तक पर भारत का दखल है, फिर भी आप कहते हैं रिसर्च में इंडिया आगे नहीं?
अंतरिक्ष और मंगल पर झंडा गाड़ने से पहले मानव जीवन के उत्थान के लिए हम विज्ञान का उपयोग क्या करते हैं, यह देखना बहुत जरूरी है। भारत को जो देखा और पढ़ा, उस लिहाज से कह सकता हूं कि यहां पर अंतरराष्ट्रीस शोध का स्तर नहीं के बराबर है। इसके पीछे भारत की आर्थिक स्थिति भी एक बड़ा कारण है। भारत रिसर्च में उतना पैसा नहीं खर्च करता, जितना यूरोपियन देश करते हैं। भारत से वैज्ञानिकों का यूरोपियन देशों में जाने के पीछे एक यही कारण है।
साइंस के प्रति भारत की सोच में क्या बदलाव होने चाहिए?
साइंस के प्रति सोच में बदलाव लाने का काम सरकार का होता है। यहां के स्टूडेंट्स में साइंस के प्रति माइंड मेकअप में भारी कमी है। साइंस कोई हौव्वा नहीं, वह एक विचार है। दिमाग में विचार आते हैं तो नये-नये प्रयोग भी सामने आते हैं। दरअसल, भारत के युवाओं की सोच में ही परिवर्तन लाने की जरूरत है।
भारत आने से पहले आपने क्या देखा और पढ़ा, अच्छा क्या लगा?
भारत में कुदरत का जो खजाना है, वह बहुमूल्य है। इसको विज्ञान में प्रयोग करके कई समस्याओं से निपटारा पाया जा सकता है। अब सबसे बड़ा संकट दुनिया में ऊर्जा का आने वाला है। भारत के पास सौर ऊर्जा जितनी मिलती है, उसका प्रयोग हो तो बिजली की परेशानी ही खत्म हो जाए। गुजरात में इसका प्रयोग मुझे इंटरनेट पर देखने को मिला, अच्छा लगा। ऐसा प्रयोग पूरे हिंदुस्तान में हो तो ऊर्जा संकट से छुटकारा मिल सकता है।
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Saturday 21 June 2014

विज्ञान और टेक्नोलॉजी

विज्ञान और भारत  
  3-02-14

भारतीय विज्ञान कांग्रेस के उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मौजूदा वक्त में विज्ञान और टेक्नोलॉजी की पढ़ाई और शोध का जो महत्व बताया है, उससे कोई इनकार नहीं कर सकता। हर युग में वह देश और सभ्यता दूसरों से आगे रही है, जिसने ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दूसरों से ज्यादा तरक्की की है, लेकिन मौजूदा वक्त में यह बात ज्यादा सही है। यह कहा भी जा रहा है कि यह ज्ञान की शताब्दी है और आने वाले वक्त में शायद देशों की तरक्की का एकमात्र मानदंड विज्ञान और टेक्नोलॉजी में उनका कौशल होगा। भारत की बड़ी युवा आबादी भी तभी देश की तरक्की में भागीदार हो सकती है, जब उसके पास जरूरी कौशल और ज्ञान हो। जानकारों का कहना है कि भारत भविष्य में वैज्ञानिक शोध का एक बड़ा केंद्र बन सकता है, बशर्ते उसके पास विज्ञान में प्रशिक्षण पाए युवाओं की बड़ी तादाद हो। प्रधानमंत्री का यह कहना है कि भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का दो प्रतिशत विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर खर्च करना चाहिए। लेकिन इस स्तर पर पहुंचने में हमें वक्त लगेगा।  हालांकि सिर्फ पैसा खर्च करना वैज्ञानिक तरक्की का आधार नहीं बन सकता, ज्यादा बड़ी चुनौती विज्ञान से जुड़े संस्थानों में ऐसी संस्कृति विकसित करना है, जहां नौजवान नए रास्ते खोजने के लिए प्रोत्साहित महसूस करें। इसके बिना पैसे का खर्च समस्याओं को बढ़ाएगा ही। कार्य संस्कृति को बदले बिना  पैसा बहाने का नतीजा हम अपनी विश्वविद्यालय शिक्षा में देख रहे हैं। शिक्षकों की तनख्वाह बढ़ाने का एक नतीजा यह हुआ है कि अकादमिक जकड़बंदी कड़ी हो गई और खुलापन घट गया, जो मौजूदा वक्त में नई खोजों की अनिवार्य शर्त है। दुनिया में ज्यादातर शोध इस वक्त एक से ज्यादा विषयों के आपसी तालमेल से संभव हो पा रहे हैं या ऐसे लोग कर रहे हैं, जो एकाधिक विषयों का ज्ञान रखते हैं। मसलन, आज जीव विज्ञान या चिकित्सा में नया शोध भौतिकी की जरूरी मदद के बिना तकरीबन नामुमकिन है या सूचना प्रौद्योगिकी के औजारों का ज्ञान हर क्षेत्र में जरूरी है, जबकि भारत में अलग-अलग विषयों की हदबंदी ज्यादा संकरी होती जा रही है।  शोध की औपचारिकता पूरी करने के लिए तरह-तरह के फर्जी संस्थान और जर्नल शुरू हो गए हैं। नकल और चोरी में हमारे शोधकर्ताओं का नाम इसीलिए बार-बार आता है। इसी के साथ संस्थानों में नौकरशाही की संस्कृति खत्म करनी पड़ेगी, जिसकी वजह से नए वैज्ञानिक स्थापित मूल्यों या धारणाओं को चुनौती देने का साहस नहीं कर पाते। एक बड़ी समस्या यह भी है कि विदेशों में ज्यादातर महत्वपूर्ण शोध जहां उनके विश्वविद्यालयों में होते हैं, वहीं भारत में जो भी काम हो रहा है, वह स्वायत्त संस्थानों में हो रहा है, जिनका शिक्षा से कोई ताल्लुक नहीं है। जब तक यह रिश्ता नहीं जुड़ेगा, तब तक नौजवानों को शोध की संस्कृति से जोड़ना बहुत मुश्किल होगा। कई भारतीय शोध संस्थानों ने बेहतरीन काम किया है, लेकिन कई संस्थान पुराने र्ढे पर घिसट रहे हैं। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र को भी पहल करनी चाहिए। जब तक औद्योगिक संस्थान शोध से नहीं जुड़ेंगे, तब तक शोध की गति धीमी ही रहेगी और उसका इस्तेमाल भी नहीं हो पाएगा। इस दिशा में कोशिशें हुई हैं, लेकिन जरूरत इन कोशिशों को कई सौ गुना बढ़ाने की है। सही माहौल और लोग मिल सकें, तो दुनिया के कई संस्थान खुशी-खुशी भारत में आना चाहेंगे। अगर भारत दुनिया में वैज्ञानिक शोधों का एक बड़ा केंद्र बन गया, तो फिर उसको महाशक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता, क्योंकि इस दौर में ज्ञान ही शक्ति है।
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विज्ञान में ठहराव  
 13-04-14

यह विज्ञान की तरक्की का युग है। लगातार बहुत सी नई-नई बातें विज्ञान के क्षेत्र में हो रही हैं। ऐसे में, यह कहना अजीब लगता है कि विज्ञान के सामने कोई संकट है, लेकिन प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका नेचर में छह वैज्ञानिकों ने लिखा है कि विज्ञान में अब नई खोजें मुश्किल से हो पा रही है। इन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से जुड़े तथ्यों का विश्लेषण करके बताया है कि सन 1940 तक भौतिकी में सिर्फ 11 प्रतिशत, रसायनशास्त्र में 15 प्रतिशत और चिकित्सा में 24 प्रतिशत नोबेल पुरस्कार 20 साल से ज्यादा पुरानी खोजों पर दिए गए थे। सन 1985 से अब तक यह भौतिकी में 60 प्रतिशत, रसायन में 52 प्रतिशत और चिकित्सा में 45 प्रतिशत हो गया है, यानी अब आधे से ज्यादा पुरस्कार 20 साल से पहले हुई खोजों पर दिए जा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर यही पैटर्न जारी रहा, तो इस शताब्दी के अंत तक नोबेल पुरस्कार देना मुश्किल हो जाएगा, क्योंकि यह पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता। पिछले दिनों भौतिकी का नोबेल पुरस्कार हिग्ज-बोसान या कथित गॉड पार्टिकल की खोज के लिए दिया गया था, जो खोज पचास साल पहले हुई थी।

विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने इतनी तरक्की कर ली है कि अब हम ब्रह्मांड की शुरुआत के पहले सेकंड के एक अरबवें हिस्से की हलचल नाप रहे हैं या लाखों प्रकाशवर्ष दूर की किसी हल्की-सी तरंग का लेखा-जोखा ले रहे हैं, लेकिन ये सारी चीजें हमारे मौजूदा ज्ञान को ही आगे बढ़ाती हैं या ज्यादा सही और प्रामाणिक बनाती हैं। इनसे कोई नई दृष्टि या नया सिद्धांत नहीं पैदा होता, जैसा मैक्स प्लांक या आइंस्टाइन की खोजों ने किया था। एक मनोवैज्ञानिक ने नेचर  में ही छपे अपने लेख में इसी बात पर चर्चा की है कि क्या वैज्ञानिक जीनियस का युग बीत गया? उनका कहना है कि अब जैसे ओलंपिक में कोई खिलाड़ी पुराने रिकॉर्ड को सेकंड के सौवें हिस्से से तोड़कर चैंपियन बनता है, वैसा ही विज्ञान में है कि वैज्ञानिक मौजूदा ज्ञान को थोड़ा-सा और आगे खिसका सकते हैं। जैसे खेलों में बॉब बीमन और उसैन बोल्ट ने किया या विज्ञान में आइंस्टाइन ने किया, ऐसा कोई जीनियस विज्ञान में होना अब मुश्किल है, जो खेल के नियम ही बदल डाले। अब सैद्धांतिक भौतिकी में इतनी सारी अवधारणाएं मौजूद हैं, बुनियादी ऊर्जाओं के एकीकरण के सिद्धांत हैं, स्ट्रिंग थ्योरी है, लेकिन इन सब अवधारणाओं को साबित करना फिलहाल तो तकरीबन नामुमकिन है। क्वांटम भौतिकी में वैज्ञानिक समझ जहां तक पहुंची है, उसके आगे सिर्फ और ज्यादा सूक्ष्म निरीक्षण हैं, लेकिन नई सोच मुश्किल है।

ऐसा नहीं है कि नए वैज्ञानिक कम समझदार या कम ज्ञानी हैं। दिक्कत यह है कि अब तक इतना सारा ज्ञान इकट्ठा हो गया है कि उसके बोझ को लेकर आगे खिसकना मुश्किल हो गया है। कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि ज्यादा आधुनिक यंत्रों की वजह से और इतनी जानकारी की वजह से ही एकदम नया विचार मुश्किल हो गया है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि आधुनिक विज्ञान के केंद्र में भौतिकी रही है और भौतिकी पर आधारित विज्ञान की सीमाएं अब स्पष्ट हो रही हैं। अब विज्ञान को जीवशास्त्र या चेतना को केंद्र में रखकर सोचना होगा। एक वैज्ञानिक ने ‘बायोसेंट्रिज्म’ नामक अपना नया सिद्धांत पेश किया है। क्वांटम भौतिकी में ‘प्रेक्षक’ या ऑब्जर्वर किसी भी परिघटना में निर्णायक होता है, इस नए सिद्धांत में इस प्रेक्षक की चेतना को केंद्र में रखकर परिघटनाओं को समझने की कोशिश है। विज्ञान में फिलहाल कुछ ठहराव तो दिख रहा है, लेकिन हो सकता है कि यह विज्ञान में किसी नई क्रांति के युग का पूर्वाभास हो।

आम आदमी के जीवन में समृध्दि लाने के लिए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का उपयोग सुनिश्चित किया जाए
मुख्यमंत्री श्री चौहान की अध्यक्षता में म.प्र. विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी परिषद की सामान्य सभा की बैठक
मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा है कि आम आदमी के जीवन में समृध्दि लाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से कैसे लाभ पहुंचाया जाए यह सुनिश्चित किया जाए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ग्रामीण शिल्पियों, कारीगरों, किसानों और आम आदमी को कैसे लाभ दिला सकता है इस दिशा में प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। विज्ञान को आम आदमी से जोड़े जाने से उसके अनेक लाभ होंगे। उक्त विचार श्री चौहान ने आज यहां मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की आठवीं साधारण सभा की बैठक की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए।
श्री चौहान ने कहा कि हम प्रदेश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से काम करना चाहते हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद द्वारा जो कार्यक्रम और दिशा तय की जाएगी उसके अनुरूप सरकार आर्थिक एवं अन्य सहयोग कर तेजी से क्रियान्वयन करेगा। पूर्व में इस दिशा में अपेक्षित प्रयास नहीं किए गए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के महत्व को देखते हुए अब इसे उपेक्षित नहीं रहने दिया जाएगा। हमारे पारंपरिक ज्ञान और धरोहर को साथ में लेते हुए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर आम आदमी की समृध्दि के लिए काम किया जाएगा। झाबुआ जिले में पिछले तीन वर्षों में जल संरक्षण के लिए जो उल्लेखनीय कार्य किए गए हैं उसे वहां की आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को बचाए रखते हुए उसमें गुणात्मक सुधार लाया जाएगा। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का विकास एवं विस्तार प्रदेश सरकार की सर्वाेच्च प्राथमिकता में है और हम इसका तेजी से क्रियान्वयन करेंगे।
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि गत वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की गतिविधियों में व्यापक प्रगति हुई है और वर्ष २००७ अनेक उपलब्धियों से भरा है। हाल ही में भोपाल में भारतीय विज्ञान सम्मेलन के सफल आयोजन से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के आम आदमी के हित में विस्तार को नई दिशा मिलेगी। विज्ञान सम्मेलन की सफलता से प्रदेश ही नहीं वरन देश को दिशा मिलेगी। परिषद के बजट में पांच गुना वृध्दि की गई है जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को प्राथमिकता देने की दिशा में हमारी प्रतिबध्दता को जाहिर करता है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक श्री महेश शर्मा ने बताया कि इस वर्ष १००० मेघावी स्कूली छात्रों को देश के विभिन्न विज्ञान संस्थानों में वैज्ञानिक भ्रमण के लिए एक विशेष ट्रेन से ले जाया जाएगा। स्कूली छात्रों को पूना, बंगलौर और कन्याकुमारी ले जाया जाएगा। श्री शर्मा ने बताया कि आगामी २८ फरवरी को प्रदेश के जिलों में विज्ञान दिवस के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जायेंगे। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की गतिविधियों से महाविद्यालयों को संबध्द किया जाएगा जिससे छात्रों में विज्ञान के प्रति रूचि जागृत हो सकेगी। सभी जिलों के संसाधन एटलस तैयार किए जायेंगे जिसमें प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन, जैव विविधता, संस्कृति एवं पारंपरिक ज्ञान सहित सभी जानकारी एकत्रित की जाएगी। श्री शर्मा ने कहा कि उज्जैन की वेध शाला को शोध कार्य के लिए विकसित किया जाएगा। उज्जैन से ३५ कि.मी. दूर डोगला में जहां से कर्क रेखा गुजरती है वहां के विशेष महत्व को देखते हुए वहां खगोलीय अध्ययन केंद्र की स्थापना किए जाने पर विचार किया जाएगा। रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष में चार फेलोशिप दी जायेंगी। साधारण परिषद की बैठक में अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लिये गए।
सभागार का शिलान्यास, एम.ओ.यू.
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने प्रारंभ में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के परिसर में डा.जगदीश चंद्र बसु सभागार का शिलान्यास किया। मुख्यमंत्री श्री चौहान की उपस्थिति में मध्यप्रदेश संसाधन एटलस तैयार करने के लिए सेंटर फार पालिसी स्टडीज चौन्नई और मध्यप्रदेश और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के बीच एक करारनामे पर भी हस्ताक्षर हुए। मध्यप्रदेश संसाधन एटलस का मुख्य उद्देश्य राज्य स्तर और जिला स्तर पर विभिन्न संसाधनों को दर्शाते हुए एटलस तैयार किया जाएगा। इसमें राज्य के प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का डेटावेस तैयार किया जाएगा।
बैठक में प्रमुख सचिव विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी श्री इन्द्रनील शंकर दाणी, सचिव योजना श्री मनोज झालानी, सचिव वित्त श्रीमती सुधा चौधरी, सचिव ग्रामीण विकास श्री वसीम अख्तर, प्रमुख अभियंता लोक निर्माण विभाग श्री आनंद सेलट, मुख्य अभियंता लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी श्री एम.एम.साकुनिया, स्वामी विवेकानंद कालेज आफ इंजीनियरिंग के निदेशक डा.रमेश घोड़गांवकर, गौ विज्ञान भारती इन्दौर के श्री नरेंद्र दुबे, कृषक विशेषज्ञ जबलपुर श्री भगवत प्रसाद पटेल, श्री शिवकुमार शर्मा, डा. ध्रुव कुमार दीक्षित जबलपुर, डा.नंदिता पाठक दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट, श्री अनुराग शुक्ला बी.एच.ई.एल. भोपाल, श्री संजीव शर्मा विज्ञान भारती भोपाल, डा.सोमदेव भारद्वाज ग्वालियर, डा. के.एस. पित्रे हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, डा. अजय नारंग, श्री टी.जी.के. मेनन, डा. नवीन चंद्र, आचार्य राधारमण दास, आचार्य अरूण दिवाकरनाथ बाजपेयी, डा. कृष्ण शंकर पांडे, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डा. गौतम, डा. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के कुलपति प्रो. डी.पी.सिंह, अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक डा. पी.के.शुक्ल और डा. बी.के.पंसे जबलपुर और अन्य सदस्य उपस्थित थे। 

अंधविश्वास निवारण में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी 

अंधविश्वास एक वैश्विक समस्या है। सभी देशों व उन के नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों और जादू-टोना आदि से जूझना पड़ता है। अंधविश्वासों का प्रचलन केवल एशियाई देशों ही नहीं बल्कि विकसित कहे जाने वाले यूरोपीय देशों में भी है। बात यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में की जाए तो बहु धर्म, मत, सम्प्रदाय के अलग-अलग देवों व पूजा-पद्धतियों के चलते यहाँ बाबा, सयाना, तांत्रिक, पीर, मियाँ जी, अवतार, देवाजी, गंडा-ताबीज, बंध  सम्मोहन, वशीकरण, टोना-टोटका, मजार, तालाब-कुंड, झाड़-फूँक आदि बहुत सी बुराइयाँ सर्वव्याप्त हैं। बहुधा देखा गया है कि कई बार कई अंधविश्वास धर्म का अंग न होने के बावजूद ढोंगी लोगों द्वारा प्रचारित कर दिये जाते हैं। शहरों की अपेक्षाकृत गाँव-कस्बों में इस तरह की बहुत सी बुराइयाँ अधिक प्रचलित हैं जो जनता को अपने मोहपाश में फाँस कर उनका सर्वस्व नाश करने में लगी हैं। विभिन्न मामलों के अध्ययन (केस स्टडी) के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के प्रयोग से आज के समाज में काफी हद तक जागरुकता आयी है। यदाकदा मामलों को छोड़ कर लोगों की समझ और विमर्श बढ़ा है परन्तु मीडिया की भूमिका जहाँ आज पूर्ण वैज्ञानिक होनी चाहिए थी व्यवसायिकता के चलते उसकी भूमिका अंधविश्वास निवारण के क्षेत्र में संदिग्ध है। कभी तो मीडिया बुनियादी विज्ञान को देवी-देवता से जोड़ता प्रतीत होता है और कभी अंधविश्वासों की वैज्ञानिक व्याख्या करता नहीं थकता। बल्कि कई मामलों में मीडिया अपनी रेटिंग बढ़ाने के लिये अंधविश्वास के मामलों का प्रचार करता ही दिखता है।
सन्तोष की बात है कि वैज्ञानिक चेतना के प्रसार से अंधविश्वास को मामलों में हालिया वर्षों में काफी कमी आयी है। अब कोई किसी के नाम की हांडी नहीं छोड़ता है और ना ही आनुवांशिक विकार के साथ पैदा हुए मानव या पशु बच्चे को अवतार की संज्ञा दी जाती है। ग्रामीण क्षेत्र में जागरुकता का संचार इस बात से साबित होता है कि अब पीलिया का रोगी या साँप का काटा आदमी झाड़-फूँक वाले के पास ना जाकर डॉक्टर के पास पहले जाता है। पुराने समय में ग्रामीण क्षेत्रों में साक्षरता एवं स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव भी अंधविश्वासों के प्रचलन का एक मुख्य कारण था। इन सेवाओं की ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँच होने से अंधविश्वासों में कमी आयी है। इस लेख में बहुत से उदाहरणों से और स्वयं सुलझाए गए मामलों के नतीजों से साबित होता है कि अब कोई ढकोसला अधिक लंबा नहीं चल सकता, चाहे मंद गति से ही सही विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ने बहुत सी भ्रांतियाँ मानव मन से मिटा दी हैं।
लंबी गुलामी और थोपे गये विदेशी विचार वास्तव में मूल भारतीय संस्कृति के संहारक बने और हमारी मूल परम्पराओं का ह्रास होता गया और हम गहरे अंधविश्वासों में फँसते चले गए। देश के आजाद होने से पूर्व सोचा गया था कि पहले हम आजाद हो लें, आजाद हुए तो भूख-गरीबी समाप्त करने और आंतरिक राजनीतिक कलह, युद्ध, बटवारे और पूर्व गुलाम मानसिकता ने मजबूती से जकड़े रखा। सरकारों ने अपने स्तर पर प्रयास किया तो जनसंख्या की आँधी सर्वनाश करती चली गई। आजाद भारत में इस प्रकार की सोच बन गयी कि जो अधिक होंगे उनका ही राज़ होगा। खैर सभी को अपनी विचार प्रकट करने की आजादी और आजाद फिजा में तरक्की की लहर चल पड़ी। सड़कें, यातायात, चिकित्सा, शिक्षा, व्यापार, न्याय और धर्म की आजादी आम जनता को और बढ़ता पूँजीवाद आपसी घमासान के साथ बम्बैया मनोरंजन के साथ-साथ आनन्दित हो अग्रसर होता रहा। विज्ञान व प्रौद्योगिकी का महत्व लोग समझने लगे थे। विज्ञान के क्षेत्र में नित नए साधनों का प्रयोग एक चमत्कार के रूप में प्रचलित अंधविश्वासों को समझने में कारगर सिद्ध हो रहा था। ग्रामीण क्षेत्रों में विद्युत का पहुँचना और विद्युत बल्ब का जगमगाना बहुत से अंधविश्वासों को यकायक डकार गया। अँधेरे में किया जाने वाला चमत्कार बिजली की चमक में उजागर हो गया।
यातायात के साधन को विकास के दौर की सबसे बड़ी देन समझा जा सकता है। दूरदराज के गाँवों में बारात व तीर्थयात्रा  के अवसर पर ही गाँव से बाहर निकलने वाला ग्रामीण अब दूर-दूर की यात्राएँ करने लगा। अपने साथ वो वैज्ञानिक विचार और अंधविश्वास निवारण जागरुकता भी लाने लगा। आजादी के संघर्ष से खाली हुए कार्यकर्ता भी कुछ राजनीति से प्रेरित और कुछ आजादी के बाद के तीव्र परिवर्तनों से प्रभावित होकर जागरुकता के संचार के लिए अपने-अपने स्तर पर दूरदराज के क्षेत्रों में निकल पड़े। विज्ञान व प्रौद्योगिकी की बहुत बड़ी देन सिनेमा, भोंपू रेडियो और मंडलियाँ अंधविश्वास निवारण में अग्रसर हुई।
देश में तेजी से विकास की लहर दिखाई दे रही थी। अब हरित क्रांति सिंचाई के साधनों से सज कर थाली तक भोजन परोसने में कामयाब होती जा रही थी। असल में आजाद देश की भयमुक्त प्रजा उत्साह से जागरुक हो रही थी। आम आदमी को भी अब विद्यालय जाने का अवसर देकर सरकारें उनके लिए भी रोजगार का समान अवसर जुटा रही थी। पटवारी की नौकरी को ही सबसे बड़ी नौकरी मानने वाला आम ग्रामीण कमाने खाने के लायक बन रहा था। जमीदार और पूँजीवादी भी काम के बदले दाम दिए जाने के सच को समझ रहा था कि अब वो दिन लद चुके जब बेगार ली जाती थी। इस समझ के विकसित होते ही बहुत बड़ा वर्ग अपने आप को सुरक्षित महसूस करने लगा था।
शिक्षा और वैज्ञानिक चेतना का सबसे बड़ा प्रभाव प्रचलित कुरीतियों पर पड़ा। शिक्षित वर्ग धर्म-सम्प्रदाय से तो मुक्त नहीं हो पाया परन्तु अंधविश्वासों और आडम्बरों का विरोध करने लगा। कहते हैं कि ष्सुधारवादी प्रक्रिया तेजी से बढ़ती है और गहरा असर छोड़ती है, उसका मुजायरा बेशक दबी आवाज में होता है लेकिन असरकारक होता हैष्। आडम्बरियों के पैर इतने मजबूत नहीं होते हैं कि वो विरोध की आवाज से जमे रहें, वो विरोध में जल्द ही उखड़ जाते हैं। उदाहरण के तौर पर गत 30-35 वर्षों में जमीन से मूर्तियाँ निकलना और सपने आने पर डेरे या मंदिर-मजार बनाना यकायक कम हो गया है। इसका कारण वैज्ञानिक चेतना और जागरुकता का संचार ही तो है।
प्रचलित टोने-टोटके व अंधविश्वास व उनकी मान्यताएँ
जनमानस के अनुभव सांझा करने व बातचीत  के दौरान बहुत से प्रचलित टोने-टोटके व अंधविश्वास पता चले जो कि आजादी पूर्व तथा 70 के दशक तक विद्यमान थे परन्तु समय के साथ-साथ विलुप्त होते चले गए और वर्तमान में उन का अस्तित्व ही नहीं बचा है। अब अगर ऐसी (निम्न वर्णित) घटनाएँ यदा-कदा होती भी हैं तो कोई विश्वास नहीं करता और यदि करे तो जल्द ही भांडाफोड़ हो जाता है। 
किसी को मारने के लिए या मौत से भयभीत करने के लिए अमुक के नाम की हांडी छोडऩा।
घर में खून के छींटे पडऩा।
घर के आँगन में कंकड़-बजरी की बौछार पडऩा।
घर के आँगन में सिक्के मिलना।
ट्रंक में पड़े कपड़े जलना।
खलिहान में कृषि उत्पाद का जल जाना।
गुहारे में उपले जल जाना।
पानी लाँघ जाना।
मनुष्य पशुओं के बच्चों, गाजर-मूली, पेड़-पौधों का देवी-देवता जैसे शक्ल के साथ पैदा होना।
जटायु के बच्चे पैदा होना।
जमीन से मूर्ति निकलना।
समाधि से जिंदा निकलना।
मरने के बाद अर्थी या चिता से जीवित उठ जाना।
पूर्व जन्म की बातें याद होना।
किसी की प्रेतात्मा प्रवेश कर जाना।
बीमार होने पर झाड़-फूँक करवाना।
बिना आग के चावल पकाना।
हल्दी के पानी का खून बना देना।
हवनकुंड में अग्निदेवता को प्रकट करना।
बिना चीरफाड़ किये पथरी निकालना।
कुएँ के जल को मीठा कर देना।
कपड़े पर देवी के चरण छपना।
धन को दुगना कर देना।
बंधा-वशीकरण करना।
महुए के पेड़ के नीचे हाथ-पाँव का फिसलना।
रात्रि में मंदिर में रखे प्रसाद का जूठा हो जाना।
नरबलि या पशु की बलि देना।
नारियल फोडऩे पर खून या पुष्प निकलना।
खेत में से हड्डियाँ या प्राचीन सिक्के निकलना।
शमशान से चमक का दिखाई देना।
सफेद दाग व सिरोसिस का जल के छीटों से ठीक हो जाना। 
इन सब के अलावा बीमारी, शादी ना होना, फसल अच्छी होना, पशुओं का बीमार होना, बच्चे पैदा ना होना, सामान खो जाना, मकान ना होना, सिर्फ लडकियाँ ही पैदा होना, खास उम्र तक आते-आते बच्चों का मर जाना, गड़ा धन प्राप्त करना, वशीकरण करना, प्यार में असफलता, पराई स्त्री पर आसक्त होना, पढ़ाई लिखाई में अव्वल आना, पशु खो जाना, सोना खो जाना, दौरे पडऩा आदि खास मुद्दों के लिए खास बाबा, सयाना, तांत्रिक, पीर, मियाँ जी, अवतार, देवाजी आदि हर गाँव में या फिर आस-पास के गाँवों में मौजूद हुआ करते थे।
आस पास के दस गाँवों का सर्वेक्षण करने पर पता चला कि फलाँ किस्म के लोग हुआ तो करते थे परन्तु अब नहीं हैं, वो शहर चले गए हैं। शहर चले गए हैं कहने से तात्पर्य ये है कि कहीं और चले गए हैं या धंधा बदल गए हैं। जागरुकता के कारण ही शायद उन का कारोबार जो कि पूर्णत अंधविश्वास के आधार पर ही जारी था, धीरे-धीरे समाप्त होता चला गया। कुछ आर्थिक रूप से सक्षम बाबे-मौलवी अपना डेरा बना कर बड़े स्तर पर भी कार्यरत हैं बातों-बातों में पता चला कि एक बड़ा ओहदेदार बाबा नजदीक के कस्बे में बहुत बड़ा डेरा बनाकर आज भी कार्यरत है और उस के पास लोग विदेश जाने के लिए वीजा लगवाने सम्बन्धित टोने-टोटके के लिए जाते हैं। अधिक खोजबीन के बाद पता चला कि अपने पुत्र, पुत्रवधू आदि को विदेश में भेजने के दौरान उस को विदेश भेजने सम्बन्धित सारी औपचारिक्ताओं  का पता चल गया था जिस का लाभ उठाते हुए बाबा एकदम सही-सही तुक्के लगाता और कल आने को कह कर समस्या सम्बन्धित निवारण सलाहकार एजेंटों से सलाह करके बता देता है जो की सही निकलती है। वो बाबा गम्भीर मामलों में दर्याफ्ती को उन एजेंटों के पास जाने की सलाह देता है जो उन का काम करवा देते है और बाबा जी को भी मोटी रकम दलाली में मिलती है। इस कारण आज वो बाबा इलाके में विदेश भेजने वाले वीजा बाबा के नाम से विख्यात है।
अंधविश्वासों की उत्तरजीविता के कारण
हमारी विज्ञान की पाठ्य पुस्तकें यदाकदा अंधविश्वासों की व्याख्या तो करती हैं परन्तु आंशिक तौर पर ही। इस लेखन पर खास तवज्जो की आवश्यकता है। हमारा देश विज्ञान लेखन में भी पिछड़ा हुआ है। आज वैज्ञानिक शब्दावली और अभिव्यक्तियों की दृष्टि से हिंदी अत्यंत समृद्ध है। फिर भी आज वैज्ञानिक विषयों पर हिंदी में लेखन बहुत ही कम और अपर्याप्त है। इसका कारण भाषा की अशक्तता कदापि नहीं है बल्कि वैज्ञानिकों का इस दिशा में रुझान न होना ही हमारी विज्ञान लेखन की इस दरिद्रता का कारण बना हुआ है। अशक्त व हीन विज्ञान लेखन यदाकदा जादू टोने से शुरु होता है, उस की सत्ता को ही प्रचारित करता हुआ अंतिम क्षणों में उसका खंडन तो करता है परन्तु विज्ञान व तार्किक सोच का मजबूत पक्ष नहीं रख पाता। पूर्णतया वैज्ञानिक कल्पना का अभाव है क्योंकि वैज्ञानिक अभी विज्ञान लेखन अपनाने से कतराते हैं या वंचित है। इस कारण आम साहित्यिक हिंदी लेखक अच्छी सम्भावना और धनार्जन हेतु इस तरह के विज्ञान लेखन में अपने हाथ आजमा लेते हैं और वो भी जादू-टोने के खंडन व भूत प्रेत कथाओं से उपर उठ ही नहीं पाते। पथभ्रमित होते हुए उन के लेख खंडन की जगह प्रचार करते ही प्रतीत होते हैं। जैसा कि कहा जाता है, भारत ऐसा देश है जो संपन्न होते हुए भी दरिद्र है। वैज्ञानिक लेखन के क्षेत्र में भी यही बात सच है। इसका निराकरण तभी संभव है जब एक तो, शिक्षा के माध्यम के रूप में भारतीय भाषाओं को अपनाया जाय तथा दूसरे वैज्ञानिकों को हिंदी में बोलने और लिखने के लिए प्रेरित किया जाए। विज्ञान लेखन की भयंकर कमी होने के कारण गत तीन दशकों में आम लोगो के हाथों में विज्ञान लेखन आंशिक रूप से ही पहुँचा है जबकि अखबारों व रसालों के द्वारा अंधविश्वास प्रेरक सामग्री अधिक पहुँची है।
समाज से अंधविश्वासों, टोने-टोटकों, गंडा-ताबीज पूच्छा आदि के पूर्णतरू समाप्त ना हो सकने का कारण जनसंख्या का अधिक होना भी है। काम-धंधे रोजगार के अधिक अवसर ना होने के कारण अधिकाँश लोग लघु मार्ग से अमीर बनना चाहते हैं और फिर वो इस प्रकार के मार्गों की तलाश में निकलते हैं जिसका अंत अपराध पर समाप्त होता है। अधिकाँश एन॰जी॰ओ॰ भी गैर जिम्मेदार हैं जो इस से सम्बन्धित धन लेकर भी इस संदर्भ में पूर्णतया ईमानदार नहीं हैं।
घर-परिवार में सभी सदस्यों के शैक्षिक स्तर में बड़ा अंतर है। समस्या के आने पर कभी अशिक्षा शिक्षित सदस्य पर हावी हो जाती है और कभी शिक्षा जीत जाती है। अभी भी विचारों, उम्र और शिक्षा स्तर में गम्भीर अंतर है जो कि नवचेतना के मार्ग में बाधक है।
एक तरफ जहाँ मीडिया ने इन अंधविश्वासों को समाप्त करने में मदद की थी आज नए व्यवसायी चौनल इन अंधविश्वासों को नित नए तरीकों से प्रस्तुत कर रहे हैं परन्तु यहाँ एक बात काबिले गौर है। निर्मल बाबा के संदर्भ में पहले मिडिया उन को खूब उठाया और बाबा से इस काम का पैसा लिया और फिर बाबा को ठिकाने भी लगा दिया और एकदम सब चुप भी कर गए। निर्मल बाबा के प्रकरण में मीडिया की भूमिका संदिग्ध रही।
अंधविश्वासी किस्सों और अनुभवों का हस्तान्तरण, किस्से-कहानियाँ, रीति-रिवाज, व्रत-त्यौहार, पीर-औलिये, डेरे-मजार, धर्मप्रचार आदि कारक समाज के अंधविश्वास से पूर्णतया मुक्त होने में रुकावट हैं।
अन्धविश्वास निवारण में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का योगदान
सर्वेक्षण के दौरान गाँव अलाहर में बारह वर्ष से सत्तर वर्ष तक की उम्र के पुरुषों से विभिन्न टोने-टोटके व अंधविश्वास सम्बन्धी अनुभव साँझे किये गए और वर्तमान में इनके पहले जितने प्रचलित ना होने के कारण पूछे गए तो निम्न तथ्य सामने आये। पता लगा कि सबसे अधिक भयभीत करने वाला कारनामा था हांडी छोडऩा, यदि रात में कोई हांडी देख लेता था तो अपनी मौत को निकट ही समझता था। बुजुर्गों ने बताया कि गाँवों में बिजली आने से अब हांडी छोडऩे की घटनाएँ नहीं होती हैं। युवाओं ने इस घटना के बारे में अनभिज्ञता तो प्रकट नही की और यह कहा कि सुना तो है ऐसा होता था परन्तु देखा कभी भी नहीं, जबकि बालकों ने कहा ऐसा नहीं हो सकता हांडी हवा में खुद नहीं तैर सकती जरूर उसे कोई बाँस पर बाँध कर भागता होगा।
वैज्ञानिक चेतना, टी॰ वी॰ रेडियो कार्यक्रम, नाटक, सीरियल-ड्रामा, चमत्कारों का पर्दाफाश, तर्कशील सोसायटी के कार्यक्रम, अखबार-मैगजीन, कम्प्यूटर, इंटरनेट, विज्ञान ब्लॉग, मोबाइल फोन, नुक्कड़ नाटक, तमाशा, विज्ञान जत्था, नवचेतना रैली, विज्ञान क्लब गतिविधियाँ, नव जागरण पंथ, सत्संग कमेटियाँ, आर्य समाज सम्मेलन, उच्च शिक्षा प्राप्त नागरिक आदि गाँव से अंधविश्वास, जादू-टोने,  झाड़-फूँक आदि कुरीतियों को हटाने में सहायक कारक बने।
ग्रामीण क्षेत्रों में अन्धविश्वास निवारण के लिए सुझाव
गाँव के विद्यालयों में छात्रों और अध्यापकों के लिए अंधविश्वास निवारण की विशेष प्रशिक्षण कार्यशालाएँ लगाई जायें।
विज्ञान के पाठ्यक्रम में श्अंधविश्वास और उन का निवारण्य नामक अध्याय छठी से दसवीं कक्षा तक जोड़ा जाए जिसमें स्थानीय उदाहरणों का भी हवाला दिया जाए।
विशेष विज्ञान नवचेतना जत्थे देश भ्रमण पर निकाले जायें।
सरकारें सज्ञान लेते हुए देश में कार्यरत तर्कशील सरीखी संस्थाओं को आर्थिक सहायता प्रदान करें और उनको ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिये प्रेरित करें।
नागरिकों को राष्ट्रीय वैज्ञानिक जागरण व विशेष अंधविश्वास निवारण बहादुरी पुरस्कार दिये जायें।
गाँवों में प्रति माह विशेष परामर्श अधिकारी भेजे जायें जो इन मामलों के अनुभवी हों।
अखबारों में अंधविश्वास फैलाने वाले व भ्रमित करने वाले मौलवियों, सयानों, तांत्रिकों, बाबों आदि के विज्ञापन पूर्ण रूप से प्रतिबंधित किये जायें।
डेरों, आश्रमों, मजारों व दरगाहों की गतिविधियों पर विशेष नजर रखी जाए।
उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापन गैरचमत्कारी हों अर्र्था उन में किसी चमत्कार हो जाने की बात ना कही जाए जैसे तीस दिन में कद बढ़ जाना, दो सप्ताह में वजन कम हो जाना आदि।
प्रत्येक ग्रामीण स्कूल में एक खगोलीय दूरदर्शी दी जाए ताकि विद्यार्थियों को खगोलीय पिंडों की वैज्ञानिक   जानकारी देकर उनको तथाकथित ग्रह चाल, ग्रह दशा व राशिफल आदि के भय से मुक्त किया जा सके।
उच्च स्तर के वैज्ञानिक लेख, विज्ञान कथाएँ आदि अखबारों व पत्र-पत्रिकाओं में साप्ताहिक या मासिक रूप से प्रकाशित करना प्रकाशकों के लिए अनिवार्य किया जाय।
किसी भी घटना-दुर्घटना या चालाकी को चमत्कार के रूप में प्रचारित करने संस्था या कम्पनी को दण्डित किया जाए।
यदि हमारे गाँव और दूरस्थ आबादियाँ अंधविश्वास और चमत्कारों से मुक्त रहेंगे तो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का यह वरदान देश की तरक्की में सहायक होगा।

क्यों मनाया जाता है २८ फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस?

नई दिल्लीरू आज २८ फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जा रहा है. भारत में आर्यभट्ट, चंद्रशेखर और वेंकट रमन जैसे कई वैज्ञानिक हुए, जिन्होंने विज्ञान के क्षेत्र में देश का नाम रोशन किया. विज्ञान के प्रति समाज में जागरूकता लाने और वैज्ञानिक सोच पैदा करने के उद्देश्य से राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रलय द्वारा च्राष्ट्रीय विज्ञान दिवसज् मनाया जाता है.
अभी हाल ही में मशहूर वैज्ञानिक प्रोफेसर सी. एन. राव. को देश के सर्वाेच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किया गया. 

२८ फरवरी, १९२८ को कोलकाता में भारतीय वैज्ञानिक प्रोफेसर चंद्रशेखर वेंकट रामन ने इस दिन विज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्ट वैज्ञानिक खोज की जिसे च्रामन इफेक्टज् के रूप में जाना जाता है.  सीवी रामन ने कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाया. उनके इस खोज के कारण ही १९३० में नोबेल पुरस्कार मिला.

चंद्रशेखर वेंकट रमन, भारत के भौतिक विज्ञानी थे। सात नवंबर १८८८ को पैदा हुए रमन को प्रकाश के विवर्तन का पता लगाने के लिए १९३० में भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उस समय के मैसूर स्टेट में पैदा होने वाले सीवी रमन को १९५४ में भारत का सबसे बड़ा सम्मान भारत रत्न दिया गया।

विज्ञान में हो रहे नये प्रयोगों के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए देश में च्साइंस सिटीज् भी बनाई गयी है. फिलहाल चार सांइंस सिटी, कोलकाता, लखनऊ, अहमदाबाद और कपूरथला में है. इसके अलावा देश के गुवाहटी और कोट्टयाम में भी इसका निर्माण हो रहा है. साइंस सिटी विज्ञान के क्षेत्र में हो रहे प्रगति और क्रियाकलापों की प्रदर्शनी का केंद्र है. यहां विज्ञान से जुड़ी ३डी फिल्में भी दिखायी जाती हैं.राष्ट्रीय विज्ञान दिवस का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों को विज्ञान के प्रति आकर्षित करना और विज्ञान के क्षेत्र में नये प्रयोगों के लिए प्रेरित करना है.

वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास को बढ़ावा देने के लिए नेशनल साइंस कांग्रेस का आयोजन होता है. २०१४ में १०१वां नेशनल साइंस कांग्रेस जम्मू में दो से सात फरवरी तक आयोजित किया गया.
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आम आदमी के जीवन में समृध्दि लाने के लिए

 विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का उपयोग सुनिश्चित किया जाए

मुख्यमंत्री श्री चौहान की अध्यक्षता में म.प्र. विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी परिषद की सामान्य सभा की बैठक
मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने कहा है कि आम आदमी के जीवन में समृध्दि लाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के माध्यम से कैसे लाभ पहुंचाया जाए यह सुनिश्चित किया जाए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी ग्रामीण शिल्पियों, कारीगरों, किसानों और आम आदमी को कैसे लाभ दिला सकता है इस दिशा में प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। विज्ञान को आम आदमी से जोड़े जाने से उसके अनेक लाभ होंगे। उक्त विचार श्री चौहान ने आज यहां मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की आठवीं साधारण सभा की बैठक की अध्यक्षता करते हुए व्यक्त किए।
श्री चौहान ने कहा कि हम प्रदेश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में तेजी से काम करना चाहते हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद द्वारा जो कार्यक्रम और दिशा तय की जाएगी उसके अनुरूप सरकार आर्थिक एवं अन्य सहयोग कर तेजी से क्रियान्वयन करेगा। पूर्व में इस दिशा में अपेक्षित प्रयास नहीं किए गए। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के महत्व को देखते हुए अब इसे उपेक्षित नहीं रहने दिया जाएगा। हमारे पारंपरिक ज्ञान और धरोहर को साथ में लेते हुए विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर आम आदमी की समृध्दि के लिए काम किया जाएगा। झाबुआ जिले में पिछले तीन वर्षों में जल संरक्षण के लिए जो उल्लेखनीय कार्य किए गए हैं उसे वहां की आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को बचाए रखते हुए उसमें गुणात्मक सुधार लाया जाएगा। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का विकास एवं विस्तार प्रदेश सरकार की सर्वाेच्च प्राथमिकता में है और हम इसका तेजी से क्रियान्वयन करेंगे।
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि गत वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की गतिविधियों में व्यापक प्रगति हुई है और वर्ष २००७ अनेक उपलब्धियों से भरा है। हाल ही में भोपाल में भारतीय विज्ञान सम्मेलन के सफल आयोजन से विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के आम आदमी के हित में विस्तार को नई दिशा मिलेगी। विज्ञान सम्मेलन की सफलता से प्रदेश ही नहीं वरन देश को दिशा मिलेगी। परिषद के बजट में पांच गुना वृध्दि की गई है जो विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी को प्राथमिकता देने की दिशा में हमारी प्रतिबध्दता को जाहिर करता है।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक श्री महेश शर्मा ने बताया कि इस वर्ष १००० मेघावी स्कूली छात्रों को देश के विभिन्न विज्ञान संस्थानों में वैज्ञानिक भ्रमण के लिए एक विशेष ट्रेन से ले जाया जाएगा। स्कूली छात्रों को पूना, बंगलौर और कन्याकुमारी ले जाया जाएगा। श्री शर्मा ने बताया कि आगामी २८ फरवरी को प्रदेश के जिलों में विज्ञान दिवस के अवसर पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जायेंगे। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद की गतिविधियों से महाविद्यालयों को संबध्द किया जाएगा जिससे छात्रों में विज्ञान के प्रति रूचि जागृत हो सकेगी। सभी जिलों के संसाधन एटलस तैयार किए जायेंगे जिसमें प्राकृतिक संसाधन और मानव संसाधन, जैव विविधता, संस्कृति एवं पारंपरिक ज्ञान सहित सभी जानकारी एकत्रित की जाएगी। श्री शर्मा ने कहा कि उज्जैन की वेध शाला को शोध कार्य के लिए विकसित किया जाएगा। उज्जैन से ३५ कि.मी. दूर डोगला में जहां से कर्क रेखा गुजरती है वहां के विशेष महत्व को देखते हुए वहां खगोलीय अध्ययन केंद्र की स्थापना किए जाने पर विचार किया जाएगा। रजत जयंती वर्ष के उपलक्ष में चार फेलोशिप दी जायेंगी। साधारण परिषद की बैठक में अनेक महत्वपूर्ण विषयों पर निर्णय लिये गए।
सभागार का शिलान्यास, एम.ओ.यू.
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने प्रारंभ में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के परिसर में डा.जगदीश चंद्र बसु सभागार का शिलान्यास किया। मुख्यमंत्री श्री चौहान की उपस्थिति में मध्यप्रदेश संसाधन एटलस तैयार करने के लिए सेंटर फार पालिसी स्टडीज चौन्नई और मध्यप्रदेश और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के बीच एक करारनामे पर भी हस्ताक्षर हुए। मध्यप्रदेश संसाधन एटलस का मुख्य उद्देश्य राज्य स्तर और जिला स्तर पर विभिन्न संसाधनों को दर्शाते हुए एटलस तैयार किया जाएगा। इसमें राज्य के प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों का डेटावेस तैयार किया जाएगा।
बैठक में प्रमुख सचिव विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी श्री इन्द्रनील शंकर दाणी, सचिव योजना श्री मनोज झालानी, सचिव वित्त श्रीमती सुधा चौधरी, सचिव ग्रामीण विकास श्री वसीम अख्तर, प्रमुख अभियंता लोक निर्माण विभाग श्री आनंद सेलट, मुख्य अभियंता लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी श्री एम.एम.साकुनिया, स्वामी विवेकानंद कालेज आफ इंजीनियरिंग के निदेशक डा.रमेश घोड़गांवकर, गौ विज्ञान भारती इन्दौर के श्री नरेंद्र दुबे, कृषक विशेषज्ञ जबलपुर श्री भगवत प्रसाद पटेल, श्री शिवकुमार शर्मा, डा. ध्रुव कुमार दीक्षित जबलपुर, डा.नंदिता पाठक दीनदयाल शोध संस्थान चित्रकूट, श्री अनुराग शुक्ला बी.एच.ई.एल. भोपाल, श्री संजीव शर्मा विज्ञान भारती भोपाल, डा.सोमदेव भारद्वाज ग्वालियर, डा. के.एस. पित्रे हरी सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, डा. अजय नारंग, श्री टी.जी.के. मेनन, डा. नवीन चंद्र, आचार्य राधारमण दास, आचार्य अरूण दिवाकरनाथ बाजपेयी, डा. कृष्ण शंकर पांडे, जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कुलपति डा. गौतम, डा. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर के कुलपति प्रो. डी.पी.सिंह, अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक डा. पी.के.शुक्ल और डा. बी.के.पंसे जबलपुर और अन्य सदस्य उपस्थित थे।