Monday 27 October 2014

विज्ञान और रहस्य




फिजूलखर्ची और सृजन

:27-07-14

विज्ञान और ज्ञान के अन्य क्षेत्रों में तरक्की के बावजूद प्रकृति का ज्यादातर कामकाज अब भी हमारे लिए रहस्यमय है। मसलन, वैज्ञानिकों ने यह पाया है कि मानवीय डीएनए का लगभग आठ प्रतिशत हिस्सा ही उपयोगी है, शेष बचा हुआ 92 प्रतिशत निष्क्रिय रहता है। पहले यह माना जाता था कि लगभग 80 प्रतिशत डीएनए किसी न किसी रूप में उपयोगी है, लेकिन ऑक्सफोर्ड के शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर लगभग 90 प्रतिशत डीएनए न हो, तब भी जीवन का कामकाज चलता रहेगा। यह 90 या 92 प्रतिशत डीएनए वह है, जो करोड़ों साल की विकास यात्रा में कभी काम आया होगा, लेकिन अब नहीं है। इस नतीजे पर पहुंचने के लिए वैज्ञानिकों  ने अन्य जीवों के डीएनए के साथ मानव डीएनए का तुलनात्मक अध्ययन किया और उन जीन्स को पहचाना, जो जैव विकास यात्रा के दौरान साझा थे और अभी तक मौजूद हैं। उनकी मौजूदगी का मतलब है कि वे उपयोगी हैं, तभी प्रकृति ने उन्हें बचाकर रखा है। कुछ वैज्ञानिकों ने निष्क्रिय जीन्स को ‘जंक जीन्स’ यानी कूड़ा कहा है, जो विकास यात्रा के दौरान इकट्ठा हो  गया है। लेकिन क्या यह सचमुच कूड़ा है? हमें अक्सर आश्चर्य होता है कि प्रकृति इतनी फिजूलखर्ची क्यों करती है? जब कुछ ही पौधे उगाने हैं, तो पेड़ इतने सारे बीज क्यों बिखेरते हैं? एक संतान पैदा करने के लिए अरबों शुक्राणु क्यों बनते हैं? लोगों को इस बात पर भी ऐतराज होता है कि नदियों का मीठा पानी समुद्र में जाकर व्यर्थ हो जाता है। इसी तरह यह भी एक सवाल है कि इतने सारे व्यर्थ के निष्क्रिय डीएनए क्यों हर मानव कोशिका के अंदर मौजूद हैं? उपयोगितावादी नजरिये से प्रकृति की इस फिजूलखर्ची को रोककर ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाने की कोशिश इंसान खास तौर पर आधुनिक समय में कर रहा है। हम फैक्टरी की तरह के मुर्गी फॉर्मो में मुर्गियों को पैदा कर रहे हैं। नदियों का पानी समुद्र में न जाए, इसलिए बांध बना रहे हैं। पौधों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन हासिल करने के लिए उन्हें रसायन और कृत्रिम रोशनी दे रहे हैं। लेकिन इस नजरिये के नुकसान भी हैं, और ऐसा लगता है कि यह नजरिया प्रकृति के स्वभाव को न समझने की वजह से है। प्रकृति का मूल स्वभाव उत्पादन नहीं, सृजन है। उत्पादन का अर्थ है एक जैसी कई सारी चीजें पैदा करना, जबकि सृजन का अर्थ है कि अब तक जो नहीं हुआ, उसकी रचना करना। प्रकृति का हर सृजन इसीलिए अद्वितीय होता है। कहते हैं कि दो सूक्ष्मजीवी भी बिल्कुल एक जैसे नहीं होते। यह विविधता प्रकृति के बने रहने के लिए जरूरी है। अगर सारे जीव एक जैसे होंगे, तो किसी एक संकट या एक बीमारी से सब मारे जाएंगे, विविधता बचे रहने की गारंटी है। सृजन के लिए विविधता का होना जरूरी है, तभी अलग-अलग तत्वों के मेल से नए-नए रूप बनेंगे। जो चीज प्रकृति में हमें व्यर्थ लगती है, वह हो सकता है कि उसके लिए काम की हो। कुछ वैज्ञानिक यह मानते हैं कि 92 प्रतिशत डीएनए बेकार नहीं हैं, उन्हें प्रकृति ने इसलिए बचाकर रखा है कि उसकी कभी जरूरत पड़ सकती है। वह हमारी संचित निधि है, कूड़ा नहीं है। अब मनुष्य प्रकृति के तर्क को फिर से समझने की कोशिश कर रहा है और यह देखा जा रहा है कि जो चीजें पहले बेकार या प्रकृति की फिजूलखर्ची लगती थीं, उनका कुछ उपयोग है और उन्हें नष्ट करने से प्रकृति का संतुलन बिगड़ गया और कई दिक्कतें पैदा हो गईं। जीवन की विकास यात्रा का जो इतिहास हम मनुष्यों की कोशिकाओं में दबा पड़ा है, भविष्य में कभी हम उसे पढ़ पाएंगे और वह न जाने किस दौर में हमारी मानवता के काम आ जाए।
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बिना बोले संवाद

:31-08-14

वैज्ञानिकों ने एक व्यक्ति के मस्तिष्क में पैदा हुए विचारों को हजारों किलोमीटर दूर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की है। इसका अर्थ है कि अगर यह तकनीक विकसित हो जाए, तो किसी दूसरे व्यक्ति तक कोई बात पहुंचाने के लिए सिर्फ उस बात को सोचने की जरूरत होगी और दूसरे व्यक्ति का मस्तिष्क उसे ग्रहण कर लेगा। यह टेलीपैथी का एक वैज्ञानिक रूप कहा जा सकता है। सैद्धांतिक रूप से यह मुश्किल अवधारणा नहीं है। कोई मस्तिष्क जब कोई भी विचार करता है या दूसरा कोई काम करता है, तो उसमें मौजूद असंख्य कोशिकाओं में, जिन्हें न्यूरॉन कहते हैं, विद्युत चुंबकीय तरंगों द्वारा संदेश प्रसारित होता है। ये वैसी ही तरंगें हैं, जैसी रेडियो तरंगें होती हैं, सिर्फ इनकी आवृत्ति अलग होती है। इन मस्तिष्क तरंगों का लेखा-जोखा ईईजी या इलेक्ट्रोएंसेफेलोग्राम के जरिये देखा जा सकता है। किसी कंप्यूटर को ईईजी की रिकॉर्डिंग के लिए प्रोग्राम कर दिया जाए कि जब यह शब्द दिमाग में आए, तो ऐसा पैटर्न बनता है, या कोई दूसरा शब्द मस्तिष्क में आए, तो दूसरी किस्म का पैटर्न बनता है। इस जानकारी को यह कंप्यूटर रेडियो तरंगों या विद्युत चुंबकीय तरंगों में बदलकर संप्रेषित कर सकता है। इसी सिद्धांत के आधार पर मस्तिष्क तरंगों से चलने वाले वीडियो गेम चलते हैं। कंप्यूटर से संप्रेषित तरंगों को हजारों किलोमीटर दूर एक रिसीवर से ग्रहण करके फिर उन्हें कंप्यूटर के जरिये मस्तिष्क तरंगों में बदलकर दूसरे व्यक्ति के मस्तिष्क तक पहुंचाया गया। फिलहाल ईईजी के जरिये हम सारे दिमागी विचारों को नहीं पढ़ सकते, लेकिन बात निकली है, तो दूर तलक जा सकती है। यह वैसा ही है, जैसे टेलीफोन में ध्वनि तरंगों को ज्यादा ताकतवर विद्युत चुंबकीय तरंगों में बदलकर दूर तक पहुंचा दिया जाता है, जहां दूसरे टेलीफोन का रिसीवर उन्हें ग्रहण करके फिर ध्वनि तरंगों में बदल देता है। लेकिन हम सीधे मस्तिष्क तरंगों को क्यों नहीं दूसरे तक पहुंचा सकते? मस्तिष्क तरंगें बहुत हल्की और कमजोर होती हैं, तभी वे दूर तक संप्रेषित नहीं हो पातीं। उन्हें संप्रेषित करने के लिए किन्हीं शक्तिशाली तरंगों में बदलना जरूरी होता है, जैसे आवाज भी कुछ दूर तक ही जा पाती है। इसलिए उसे दूर संप्रेषित करने के लिए ध्वनि तरंगों को भी ज्यादा शक्तिशाली तरंगों में बदलना पड़ता है। अभी वैज्ञानिक जानकारी यहां तक ही पहुंची है, लेकिन मुमकिन है कि मस्तिष्क तरंगें उतनी कमजोर न भी होती हों, जितना हम मानते हैं या कुछ लोग उन्हें शक्तिशाली बनाने के तरीकों से जाने-अनजाने वाकिफ हों और इसीलिए वे दूसरों पर ज्यादा असर डालने में कामयाब होते हों। मस्तिष्क तरंगें, अन्य विद्युत चुंबकीय तरंगों की तरह ही हैं, हो सकता है कि एक व्यक्ति की शक्तिशाली मस्तिष्क तरंगें दूसरे के मस्तिष्क को बिना कुछ बोले प्रभावित कर दें। देखा गया है कि अन्य विद्युत चुंबकीय तरंगें मस्तिष्क तरंगों को प्रभावित करती हैं। हमारे मस्तिष्क के बहुत पास जो विद्युत चुंबकीय तरंगें होती हैं, वे सेलफोन की तरंगें हैं। यह देखा गया है कि जब सेलफोन पर बात की जाती है, तो मस्तिष्क की अल्फा तरंगें सक्रिय हो जाती हैं, हालांकि इसका ठीक-ठीक महत्व क्या है, यह मालूम नहीं पड़ा है। बहरहाल, मुद्दा यह है कि वैज्ञानिकों ने दो शब्द एक मस्तिष्क से दूसरे मस्तिष्क तक संप्रेषित करने में कामयाबी पाई है। अब दो से दो हजार शब्दों तक पहुंचना शायद सिर्फ वक्त की बात है। हालांकि यह भी याद रखना चाहिए कि बिना किसी टेक्नोलॉजी के दुनिया भर में दिल से दिल की बातें जो होती हैं, उनका महत्व असंदिग्ध है और हमेशा रहेगा।
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भविष्य का विज्ञान

:24-08-14 

दुनिया में ऐसे कट्टर बुद्धिवादी कम ही होते हैं, जो ज्योतिष पर कतई भरोसा नहीं करते, उनकी तादाद उतनी ही कम है, जितनी ऐसे लोगों की है, जो आंख मूंदकर ज्योतिष पर भरोसा करते हैं। बहुमत उनका है, जो सुविधा के अनुसार और प्रसंगानुसार ज्योतिष पर भरोसा करते हैं, यानी अच्छी भविष्यवाणियों पर भरोसा करते हैं और अप्रिय भविष्यवाणियों को नकार देते हैं। जब जरूरत होती है, तो ज्योतिष की ओर रुख करते हैं, और नहीं होती, तो ज्योतिष पर भरोसा न करने की घोषणा करते हैं। आम तौर पर माना जाता है कि विज्ञान और ज्योतिष का कोई मेल नहीं है। विज्ञान किसी भी बात को परीक्षण करने के बाद ही स्वीकारता या नकारता है, इसलिए ज्योतिष को लेकर भी कई अध्ययन हुए हैं। कई अध्ययन बताते हैं कि ज्योतिष की बातें विज्ञान की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं, लेकिन कुछ अध्ययन यह भी बताते हैं कि जन्म के वक्त का किसी इंसान के जीवन पर काफी असर हो सकता है। 1970 के दशक में हुए एक शोध का कहना था कि जन्म के महीने को लेकर व्यक्तित्व के बारे में जो बातें कही जाती हैं, वे काफी कुछ सही उतरती हैं। लेकिन इस शोध को लेकर काफी संदेह बने रहे। बाद में और ज्यादा अध्ययनों से यह पता चला कि भविष्यवाणियां ज्यादातर गलत होती हैं, लेकिन उनमें कुछ सच्चाई जरूर होती है। पश्चिमी देशों में हुए कुछ अध्ययनों से यह निष्कर्ष निकलता है कि जन्म के महीने से काफी सारी चीजें तय होती हैं। मसलन, यह पाया गया कि पतझड़ के महीने में पैदा हुए लोग ज्यादा स्वस्थ होते हैं और उनके दीर्घायु होने की संभावना काफी ज्यादा होती है या ज्यादातर पेशेवर बेसबॉल खिलाड़ी पतझड़ में पैदा होते हैं। यह भी देखने में आया कि सर्दियों में पैदा हुए व्यक्तियों की नजर अन्य मौसम में पैदा हुए व्यक्तियों से बेहतर होती है। एक काफी व्यापक अध्ययन में पाया गया कि सर्दियों और वसंत में पैदा हुए लोगों में मानसिक रोग होने की आशंका ज्यादा होती है। हो सकता है कि इन बातों की कुछ तार्किक वजहें हों। मसलन, पतझड़ के मौसम में पैदा हुए मनुष्य अपने जीवन के शुरुआती महीनों में कम बीमार होते हैं, जबकि सर्दियों में पैदा हुए लोगों में शुरू में ही बीमारियां झेलने की आशंका ज्यादा होती है, क्योंकि मौसम बीमारियों का होता है। इस शुरुआती स्वास्थ्य का असर जीवन में देर तक नजर आ सकता है। इस तर्क के हिसाब से भारत में सर्दियों में पैदा हुए बच्चों के दीर्घजीवी होने की संभावना ज्यादा होनी चाहिए, क्योंकि भारत में सबसे स्वास्थ्यप्रद मौसम यही होता है। यह भी हो सकता है कि इन बातों के पीछे और कुछ कारण हों, जिनका पता हमें न लगा हो। कुछ अध्ययन ऐसे हैं, जो बताते हैं कि जन्म के समय और व्यक्तित्व का कोई संबंध नहीं है। तो क्या यह मुमकिन है कि बावजूद तमाम सावधानियों के अध्ययन करने वालों का रुझान अध्ययन के निष्कर्षों को प्रभावित करता हो? अगर ऐसा नहीं है, तो समान सावधानियां बरतते हुए किए गए अध्ययनों के निष्कर्ष अलग-अलग क्यों होते हैं? अगर हम कट्टर तर्कवादी नहीं हैं, तो हम यह मानने पर मजबूर होते हैं कि इंसान को भविष्य का कुछ पूर्वाभास तो होता ही है। इसके प्रमाण हमें अक्सर मिलते रहते हैं। कुछ जानकार यह भी मानते हैं कि ज्योतिष का शास्त्र दरअसल इस पूर्वाभास को आधार देने के लिए बना है। विज्ञान के काम करने की एक पद्धति है और उसे उसी पद्धति से आगे बढ़ना होता है। फिलहाल यह भविष्यवाणी करना मुश्किल है कि विज्ञान का भविष्य या भविष्य का विज्ञान क्या है, सिर्फ हम हल्का-सा अंदाज ही लगाने में कामयाब हो सकते हैं।
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दिमाग का जीपीएस

नवभारत टाइम्स| Oct 8, 2014,

चिकित्सा के क्षेत्र में इस बार का नोबेल पुरस्कार न केवल इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का बल्कि सामान्य लोगों का भी उत्साह बढ़ाने वाला है। यह पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को लेकर उनकी महत्वपूर्ण खोज के लिए दिया गया है। इन तीनों वैज्ञानिकों के प्रयास न केवल इस अहम विषय के अलग-अलग पहलुओं से जुड़े रहे हैं, बल्कि वे कालखंड के हिसाब से भी एकदम अलग हैं। ब्रिटिश-अमेरिकी साइंटिस्ट जॉन ओ कीफे ने 1971 में अपने प्रयोगों के जरिए यह पता लगाया था कि दिमाग के एक खास हिस्से में सक्रिय 'प्लेस सेल्स' आसपास के इलाके का मैप तैयार कर लेते हैं। इसके बाद 2005 में इनके रिसर्च को आगे बढ़ाया नार्वे के साइंटिस्ट कपल मे ब्रिट मोजर और एडवर्ड मोजर ने। इन्होंने दिमाग के दूसरे हिस्से में सक्रिय 'ग्रिड सेल्स' का पता लगाया, जो आसपास की स्थितियों के साथ तालमेल बनाते हुए हमारा इधर-उधर जाना आसान बनाते हैं। दिमाग के काम करने के तरीके, खासकर ऊंचाई और गहराई की समझ बनाने की इसकी प्रक्रिया ने लंबे अर्से से विज्ञान जगत को उलझा रखा था। कई तरह की बीमारियों का इलाज और रोबॉट तथा कंप्यूटर जैसे क्षेत्रों में इनोवेशन की रफ्तार इस गुत्थी की वजह से थमी हुई थी। गौरतलब है कि स्थान की समझ बनाने से जुड़ी दिमागी प्रक्रिया पर केंद्रित इस रिसर्च के निष्कर्ष आगे चलकर लोगों, स्थितियों, सुगंधों और अनुभवों आदि के संदर्भ में भी खासे उपयोगी साबित हो सकते हैं। लेकिन अभी तो हाल यह है कि कीफे और मोजर दंपति के निकाले हुए नतीजे चूहों पर किए गए प्रयोगों पर आधारित हैं, इसलिए पहली चुनौती यह स्पष्ट करने की है कि इंसानी दिमाग भी ठीक उसी तरह कार्य करते हैं या नहीं। अगर जवाब हां में मिलता है तो आने वाले समय में यह रिसर्च याददाश्त बढ़ाने के असरदार उपाय खोजने से लेकर, दिमागी चोट का इलाज और बुढ़ापे में स्मरण शक्ति को मजबूत बनाने के आसान तरीकों की खोज तक में मददगार बनेगी। कौन जाने, इसका इस्तेमाल इंसान की तरह ही देश, काल, पात्र के हिसाब से उपयुक्त फैसले करने वाले रोबॉट बनाने में भी होने लगे।
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दिमाग का जीपीएस

07-10-14 08

नोबेल पुरस्कारों की घोषणा का मौसम आ गया है और सबसे पहले चिकित्सा विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं की घोषणा हुई है। चिकित्सा का नोबेल तीन वैज्ञानिकों को मिला है। पुरस्कार विजेता हैं- यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के प्रोफेसर जॉन ओ कीफ और नॉर्वे के दंपती एडवर्ड मोजर और मे-ब्रिट मोजर। नोबेल पुरस्कार के इतिहास में मोजेर पति-पत्नी चौथे दंपती हैं, जिन्हें यह प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है। सबसे पहले सन 1911 में विख्यात वैज्ञानिक दंपती मैरी क्यूरी और पियरे क्यूरी को साथ-साथ पुरस्कार दिया गया था। मैरी क्यूरी और पियरे क्यूरी की बेटी आइरेन जोलिएट क्यूरी और उनके पति फ्रेडरिक जोलिएट क्यूरी ने 1935 में रसायन शास्त्र का नोबेल हासिल किया था। इसके बाद गर्टी कोरी और कार्ल कोरी की जोड़ी को सन 1947 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। इस बार के विजेताओं को जिस खोज के लिए नोबेल दिया गया है, उसके फौरी लाभ तो नहीं हैं, क्योंकि उसके आधार पर जल्दी ही कोई दवा या इलाज की पद्धति नहीं खोजी जा सकती, लेकिन दूरगामी नजरिये से वह बहुत महत्वपूर्ण है।इन वैज्ञानिकों ने दिमाग में उस संरचना की खोज की है, जिससे जीव जगहों के बारे में अपना संज्ञान हासिल करते हैं, यानी इसे दिमाग का प्राकृतिक जीपीएस कहा जा सकता है। ओ कीफ सन 1971 में चूहों को लेकर प्रयोग कर रहे थे। उन्होंने देखा कि चूहे को किसी एक जगह ले जाने पर उसके दिमाग की एक कोशिका में सक्रियता हो रही थी। उन्होंने देखा कि कमरे के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग कोशिकाओं में सक्रियता रिकॉर्ड हो रही थी। उन्होंने इसका अध्ययन किया और फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ये कोशिकाएं कमरे का एक नक्शा दिमाग में बना रही थीं। जब उन्होंने अपनी खोज को प्रकाशित करवाया, तो आम तौर पर वैज्ञानिक समुदाय में उत्साह नहीं, बल्कि संदेह ही देखने में आया, क्योंकि तब यह नहीं माना जाता था कि ऐसी अलग-अलग कोशिकाएं यह काम कर सकती हैं। उनके काम के करीब तीन दशक बाद मोजर दंपती ने कोशिकाओं का एक पूरा तंत्र खोज निकाला, जो जगहों की जानकारी, उनकी एक-दूसरे से दूरी और दिशा का पूरा लेखा-जोखा रखता है। मोजर दंपती और ओ कीफ की उम्र में काफी फर्क है। ओ कीफ लगभग 75 साल के हैं और मोजर दंपती लगभग पचास की उम्र के। मोजर दंपती ओ कीफ के साथ काम कर चुके हैं, हालांकि जिस काम के लिए उन्हें नोबेल मिला है, वह उन्होंने स्वतंत्र रूप से किया है। इस खोज से यह जानने में मदद मिलेगी कि स्ट्रोक यानी दिमाग को खून की आपूर्ति अचानक बंद हो जाने से या अल्जाइमर जैसे रोगों में जगह व दिशा का ज्ञान क्यों प्रभावित हो जाता है? यह जानकारी इन बीमारियों के प्रभावी इलाज ढूंढ़ने में काम आ सकती है। इस तरह की खोजों के अन्य फायदे भी होते हैं। प्रकृति किसी भी नजरिये से मनुष्य से कई गुना ज्यादा बड़ी इंजीनियर है और उसके काम करने के तरीके समझकर वैज्ञानिक अपनी टेक्नोलॉजी बेहतर बनाते हैं या नई टेक्नोलॉजी विकसित करते हैं। पक्षियों के उड़ने से लेकर मकड़ी के जाले वैज्ञानिकों के लिए बेहतर टेक्नोलॉजी विकसित करने के प्रेरणा-स्रोत साबित हुए हैं। प्रकृति ने छोटे-से-छोटे जीव में जो जीपीएस विकसित कर रखा है, उसकी जानकारी दिशा और जगह बताने की हमारी तकनीकी प्रणाली को बेहतर बनाने में भी मदद कर सकती है। चिकित्सा विज्ञान और दिमागी बीमारियों को समझने और उनके इलाज विकसित करने में तो यह खोज बहुत ही उपयोगी साबित होगी।
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दिमाग की कसरत

:12-10-14

बहुत पुरानी मान्यता है कि ज्यादा कसरत करने से दिमाग मोटा हो जाता है। इन बातों में कितनी सचाई है? यह बात कुछ हद तक सही भी है और काफी हद तक गलत भी। कई ताजा शोध बताते हैं कि व्यायाम करने से दिमाग तेज होता है। जर्मनी में हुए एक अध्ययन ने यह बताया है कि जो उम्रदराज लोग हल्की कसरत करते हैं या बागवानी जैसे काम करते हैं, उन्हें बुढ़ापे के साथ होने वाली दिमागी समस्याएं कम होती हैं। एक और अध्ययन ने पाया कि नियमित रूप से टहलने वाले बुजुर्गों की एकाग्रता और दिमागी श्रम करने की क्षमता ज्यादा थी। लेकिन ऐसा ही नहीं है कि सिर्फ बजुर्गों को ही इससे फायदा होता है। अमेरिका में हुए एक शोध ने यह साबित किया है कि जो बच्चे नियमित रूप से ऐसे खेल खेलते हैं, जिनमें दौड़-भाग शामिल होती है, उनके दिमाग का विकास बेहतर ढंग से होता है। कुछ प्रयोगों ने यह दिखाया था कि अगर किसी परीक्षा के पहले बच्चे लंबा टहल लें, तो उनका प्रदर्शन बेहतर होता है, लेकिन ये सारे प्रयोग ऐसे नहीं थे, जिन्हें निर्णायक रूप से मान लिया जाए।

इसीलिए पिछले दिनों एक प्रयोग ज्यादा ठोस वैज्ञानिक ढंग से किया गया, ताकि इस बात की सही जांच हो सके।
वैज्ञानिकों ने आठ-नौ साल के 220 छात्रों को चुना। इस उम्र के छात्रों को चुनने का मकसद यह था कि इस उम्र में बच्चों में अपने विचारों को व्यवस्थित और क्रमबद्ध करने की क्षमता विकसित होती है। वैज्ञानिकों ने 110 बच्चों को सामान्य जीवन जीने दिया और बाकी बच्चों को स्कूल के बाद दो घंटे ऐसे खेल खेलने को कहा, जिसमें दौड़-भाग के अलावा बच्चे शोर-शराबा और मस्ती भी कर सकते थे। साल भर बाद बच्चों के दोनों समूहों का तुलनात्मक आकलन किया गया और नतीजा यह निकला कि जो बच्चे रोज खेलते थे, उनका दिमागी विकास बेहतर हुआ था। खासतौर पर दिमाग की एक क्षमता उनमें खास तौर पर बेहतर थी, जिसे ‘अवरोधक क्षमता’ कहते हैं, यानी बच्चे किसी बात पर विचार करते हुए अनावश्यक या अप्रासंगिक विचारों को बेहतर ढंग से हटा सकते थे।

उनकी तार्किक और व्यवस्थित ढंग से सोचने की क्षमता न खेलने वाले बच्चों से कहीं बेहतर विकसित हुई थी। हमारे देश में जो मां-बाप यह सोचते हैं कि बच्चों का खेलना वक्त बरबाद करना है, उन्हें शायद अब अपनी धारणा पर पुनर्विचार करना चाहिए। वैज्ञानिक अब इस बात पर शोध कर रहे हैं कि शरीर के व्यायाम से दिमाग को कैसे फायदा होता है। उनका अनुमान यह है कि व्यायाम से शरीर में खून का संचार तेज होता है और इससे दिमाग को भी ज्यादा खून मिलता है, इसके अलावा व्यायाम से दिमाग के लिए फायदेमंद कुछ रसायन शरीर में ज्यादा बनते हैं, जिनसे दिमाग का विकास होता है। इसका अर्थ कतई यह नहीं है कि बॉडी बिल्डरों का दिमाग सबसे तेज होता है। एक नजरिये से यह भी सच है कि शरीर का ज्यादा विकास दिमाग के विकास के लिए मुफीद नहीं है। इसकी भी वजह है। इंसानी दिमाग किसी भी जीव के दिमाग की बनिस्बत ज्यादा विकसित है।

विकास के क्रम में यह स्वाभाविक ही था कि इसको ज्यादा ऊर्जा की जरूरत होती, शरीर के अन्य अंगों की तुलना में इंसानी दिमाग की ऊर्जा की जरूरत बहुत ज्यादा होती है। वैज्ञानिकों का यह अनुमान है कि खाना पकाने का आविष्कार भी इसीलिए हुआ, ताकि दिमाग को ज्यादा पोषण आसानी से मिल सके। ऐसे में, अगर शरीर की ऊर्जा की जरूरत एक हद से ज्यादा बढ़ जाए, तो दिमाग को कम पोषण मिलने लगता है और उसका विकास कुछ बाधित होता है। इसलिए सार यह है कि कसरत से भले ही दिमाग तेज होता है, लेकिन किसी भी दूसरी चीज की तरह इसकी अति न की जाए।

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