Monday 27 October 2014

विज्ञान और शोध




सुलझे तकनीक की गुत्थी

नवभारत टाइम्स| Aug 25, 2014,

राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने आईआईटी संस्थानों के शीर्ष पदाधिकारियों से जो कहा है, उसे ध्यान में रखकर एक नई शुरुआत की जा सकती है। उन्होंने कहा कि देश की तकनीकी जरूरत पूरी करने में ये संस्थान अपनी भूमिका निभाएं और 'मेक इन इंडिया' या 'मेड इन इंडिया' की अवधारणा को जमीन पर उतारें। उन्होंने आईआईटी से देश में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने पर विचार करने को भी कहा। पिछले कुछ समय से आईआईटी की भूमिका को लेकर बहस छिड़ गई है। इनकी स्थापना के पीछे अवधारणा तकनीकी शोध को बढ़ावा देने की थी, जिससे देश के विकास के लिए जरूरी टेक्नॉलजी तैयार हो सके। पिछले दो-ढाई दशकों से इन संस्थानों का ढांचा कुछ ऐसा बन गया है कि एक तरफ ये अमेरिकी सॉफ्टवेयर कंपनियों के लिए सस्ते प्रफेशनल्स सप्लाइ कर रहे हैं, दूसरी तरफ आईएएस के रूप में देश को काफी सारे नौकरशाह दे रहे हैं, जिनका तकनीकी विकास में रत्ती भर योगदान नहीं होता। इंजिनियरिंग के कई क्षेत्रों में पढ़ाई का सिलसिला ठप पड़ गया है। देश को मकान, सड़क, फ्लाईओवर और बंदरगाहों की जरूरत है, लेकिन आईआईटी में सिविल इंजिनियरिंग की ज्यादातर सीटें ही नहीं भरतीं। बिजली, तेल, खनन आदि के विशेशज्ञ नहीं मिल रहे क्योंकि आईआईटी में कोई इलेक्ट्रिकल या माइनिंग इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए तैयार नहीं है। इस साल आईआईटी में पहली काउंसलिंग के बाद 650 सीटें खाली रह गईं जबकि पिछली बार करीब 400 सीटें खाली थीं। वजह बस वही है- हर किसी को कंप्यूटर साइंस पढ़ना है, क्योंकि दूसरे सेक्टर में उस टक्कर की नौकरियां नहीं हैं। इस असंतुलन का संबंध सरकार की नीति से है। ग्लोबलाइजेशन के माहौल में जब से विदेशी चीजों के आयात ने जोर पकड़ा है, तब से दिनोंदिन मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का दम निकला जा रहा है, हालांकि इसको औद्योगीकरण की रीढ़ समझा जाता है। सिर्फ 'मेक इन इंडिया' कहने भर से काम नहीं चलेगा। इसके लिए बड़े पैमाने पर निवेश करना होगा, कारखाने खोलने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर उपलब्ध कराना होगा और विकास की प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। इससे इंजिनियरिंग छात्रों को अपने लिए कई क्षेत्रों में गुंजाइश बनती दिखेगी। और गहराई में उतरने के लिए सरकार को इन क्षेत्रों में शोध को बढ़ावा देने के उपाय करने होंगे। अभी तो छात्रों को बेसिक इंजिनियरिंग और फंडामेंटल साइंस में रिसर्च के लिए कोई प्रोत्साहन ही नहीं मिल रहा है। आला दर्जे के इंजिनियरों और वैज्ञानिकों के विदेश जाने की यह सबसे बड़ी वजह है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि हमारे ही साइंटिस्ट दूसरे मुल्कों को तकनीकी रूप से समृद्ध कर रहे हैं, लेकिन हमें छोटी से छोटी तकनीक भी वहां से खरीदनी पड़ रही है। शोधकर्ताओं के लिए आर्थिक निश्चिंतता, आला दर्जे की रिसर्च लैब्स की स्थापना और अपने देश में विकसित होने वाली टेक्नॉलजी के व्यावसायिक इस्तेमाल की व्यवस्था ही इस बीमारी का अकेला कारगर इलाज है। तमाम आईआईटीज को मिलकर सरकार के सामने इस बदलाव का रोडमैप पेश करना चाहिए। सरकार अगर उसे अमल में उतार सकी तो उसके लिए यह इतिहास की धारा मोड़ने जैसी उपलब्धि होगी।
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साइंस का मोर्चा

Jan 9, 2013, 

भारत में साइंटिफिक रिसर्च का स्तर गिरते जाने की बात काफी समय से कही जा रही है, लेकिन इसे ऊपर उठाने की पहल इधर पहली बार ही सुनने में आई है। आईआईटी संस्थानों और केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संयुक्त प्रयास से लिए गए कुछ फैसले आने वाले दिनों में विज्ञान-तकनीकी की दुनिया में देश को इज्जत दिला सकते हैं। भारत में हर साल लाखों इंजीनियर, डॉक्टर और विज्ञान की विविध शाखाओं के डॉक्टरेट स्कॉलर तैयार होते हैं, लेकिन उन्हें साइंस-टेक्नोलॉजी में किसी मौलिक योगदान के लिए नहीं जाना जाता। कई वजहें इसके पीछे हैं। सबसे बड़ी तो यही कि देश के सारे सपने अभी गाड़ी, बंगला, दौलत और पेज-थ्री टाइप शोहरत के ही इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। इस हल्ले में वैज्ञानिक या गणितज्ञ जैसे अपनी धुन में खोए व्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं बचती। यह अचानक आई समृद्धि से चौंधियाए एक विकासशील देश की विडंबना है और इसके इलाज के लिए दस-बीस साल का वक्त बहुत कम है। बहरहाल, कुछ मामूली अड़चनें भी नई पीढ़ी को विज्ञान के कठिन रास्ते पर आगे बढ़ने से रोक रही हैं। मसलन, कई छात्र इंजीनियरिंग और फंडामेंटल साइंस के पोस्ट ग्रेजुएशन की तरफ जाने की जहमत सिर्फ इसलिए नहीं उठाते, क्योंकि अंडरग्रेजुएट स्तर की पढ़ाई के लिए उन्होंने जो एजुकेशन लोन ले रखा है, उसकी किश्तें बी.टेक. या बी.ई. की डिग्री हासिल करने के तुरंत बाद शुरू हो जाती हैं। यानी इंजीनियर बनने के एक साल के अंदर उन्होंने कोई ढंग की नौकरी नहीं पकड़ ली तो लेने के देने पड़ जाएंगे। नए उपायों में यह बात शामिल है कि पोस्ट ग्रेजुएशन या रिसर्च में दाखिला लेने वालों की लोन अदायगी या तो टाल दी जाएगी, या उनके लोन का एक हिस्सा सरकार अदा कर देगी। साइंस रिसर्च और इंजीनियरिंग पोस्ट ग्रेजुएशन के रास्ते में एक बहुत बड़ा रोड़ा इसके लिए होने वाली प्रवेश परीक्षा 'गेट' का भी है। तीन घंटे के इम्तहान में तीस विषयों की महारत जांचने वाली इस कंटीली बाड़ की ऊंचाई कम करने के लिए दो उपाय सुझाए गए हैं। एक, एम.टेक., एम. ई. या डायरेक्ट रिसर्च के लिए गेट की बाधा अब सिर्फ उन छात्रों को पार करनी होगी, जिनका अंडरग्रेजुएशन के पहले तीन सालों का टोटल ग्रेड 7 से कम होगा। और दो, किसी भी नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएशन कर रहा छात्र एक निश्चित योग्यता प्रदर्शित करने के बाद अपनी चौथे साल की पढ़ाई किसी आईआईटी संस्थान से कर सकेगा और इस तरह देश में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ रिसर्च फैसिलिटी का लाभ उठा सकेगा। इन, और कई अन्य उपायों के जरिये आईआईटी रिसर्च स्कॉलरों की संख्या मौजूदा 3,000 से बढ़ाकर 2020 तक 10,000 सालाना करने का लक्ष्य रखा गया है। भारत को एक वैज्ञानिक शक्ति बनाने में इन उपायों की कुछ भूमिका जरूर हो सकती है, लेकिन असल चुनौती देश का नजरिया बदलने की है, जिसके लिए कई स्तरों पर प्रयास करने होंगे और सिर्फ सरकार को कोसने का इसमें कोई फायदा नहीं है 
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साइंस से ठिठोली हम कब छोड़ेंगे

नवभारत टाइम्स| Feb 26, 2014

शशांक द्विवेदी
2 दिन बाद देश भर में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस मनाया जाएगा। खूब भाषण होंगे, घोषणाएं होंगी, लेकिन विज्ञान और शोध में दिलचस्पी बढ़ाने के लिए कहीं कुछ नहीं किया जाएगा। विज्ञान दिवस 'रमन इफेक्ट' खोजे जाने की याद में मनाया जाता है। 28 फरवरी, 1928 को भारतीय वैज्ञानिक प्रो. चंद्रशेखर वेंकटरमन ने कोलकाता में यह उत्कृष्ट खोज की थी। इसकी मदद से कणों की आणविक और परमाणविक संरचना का पता लगाया जाता है। इस खोज के लिए सर सीवी रमन को 1930 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उस समय तक भारत या एशिया के किसी भी व्यक्ति को भौतिकी का नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था। रमन इफेक्ट की खोज के बाद हम उस दिशा में आगे कोई शोध नहीं कर पाए और रमन स्कैनर का विकास कहीं और किया गया।
खोज नहीं, पैसा
तब से अब तक 8 दशक गुजर चुके हैं। इतनी लंबी अवधि में देश में एक भी ऐसा वैज्ञानिक नहीं हुआ जिसे पूरी दुनिया उसकी अनोखी देन के कारण पहचानती हो। हमारी नियति भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही खुशी मनाने की हो गई है। आज हम भारत को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में कहां पाते हैं? कम से कम वहां तो नहीं, जहां इसे होना चाहिए। देश में विज्ञान और अनुसंधान पर चर्चा तभी होती है जब कोई नेता, मंत्री या स्वयं प्रधानमंत्री इसकी बदहाली पर बोलते हैं। वास्तविक धरातल पर देश में आज तक ऐसा कोई बुनियादी ढांचा विकसित नहीं हो पाया जिससे बड़े पैमाने पर अनुसंधान को प्रोत्साहित किया जा सके। हालत यह है कि अधिकांश भारतीय युवा वैज्ञानिक खोज को अपने दायरे से बाहर मानने लगे हैं। साइंस-टेक्नॉलजी की पढ़ाई का मकसद बहुराष्ट्रीय कंपनियों में ऊंचे पैकेज वाली नौकरी पकड़ने तक सिमट कर रह गया है।
इस सिलसिले को जारी रखते हुए पिछले दिनों जम्मू में हुई 101 वीं विज्ञान कांग्रेस भी सरकारी रस्म अदायगी का एक और सम्मेलन बन कर रह गई। रिसर्च-इनोवेशन के लिए कहीं भी कोई संजीदगी नहीं दिखी। मै खुद इस सम्मेलन में आमंत्रित वक्ता के रूप में शामिल था। वहां यह देखकर मुझे बहुत निराशा हुई कि केंद्र और राज्य सरकार के नुमाइंदों ने ऐसी एक भी बात नहीं कही, जिससे विज्ञान को लेकर उनकी गंभीरता जाहिर होती हो। पिछले दस वर्षों से प्रधानमंत्री पद संभाल रहे डॉ. मनमोहन सिंह स्वयं एक विश्वविख्यात अकादमीशियन हैं, लेकिन विज्ञान कांग्रेस में वे 'विज्ञान' के बजाय 'कांग्रेस' के ही एजेंडे पर बोलते रहे। मसलन, सरकार ने इतने आईआईटी, एम्स और आईआईएम खोले। विज्ञान का बजट बढ़ाने के अलावा कुछ योजनाओं की भी घोषणा हुई, लेकिन उनका क्रियान्वयन कब और कैसे होगा इसकी कोई रूपरेखा नहीं बताई गई।
विज्ञान कांग्रेस का उद्घाटन करते डॉ. सिंह को एक जमाना गुजर चुका है। इतने समय में तो अपना वक्तव्य भी उन्हें याद हो गया होगा। लगभग हर बार ही वे विज्ञान के लिए बजट में जीडीपी का दो प्रतिशत खर्च करने की बात कहते हैं। लेकिन हर बार विज्ञान कांग्रेस के महीने भर के भीतर पेश होने वाले बजट में इस घोषणा की कोई गंध तक नहीं मिलती। इस बार तो घोषणा और यथार्थ के बीच की दूरी और भी पहले जाहिर हो गई। पिछले दिनों संसद में पेश अंतरिम बजट में वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने शोध और अनुसंधान के लिए सिर्फ 200 करोड़ रुपये आवंटित किए। सैम पित्रोदा के नेतृत्व में गठित नेशनल इनोवेशन कौंसिल से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन इस कौंसिल ने भी पिछले सालों में कोई बुनियादी सुधार नहीं किया।
खुद एक अर्थशास्त्री और शिक्षाशास्त्री रहते हुए डॉ. मनमोहन सिंह अगर विज्ञान के लिए कुछ नहीं कर पाए तो हालात सुधरने की उम्मीद भला किससे की जाए? दुनिया के ज्यादातर विकसित देश वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए अपने रिसर्च फंड का 30 प्रतिशत तक अपनी यूनिवर्सिटीज को देते हैं, लेकिन अपने देश में यह राशि सिर्फ छह प्रतिशत है। ऊपर से ज्यादातर यूनिवर्सिटीज के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि वहां शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है। इस संबंध में पूरी दुनिया से इकट्ठा की गई सूचनाओं के आधार पर आनी वाली खबरों से पता चलता है कि जो थोड़ी-बहुत रिसर्च देश में हो भी रही है, उसका स्तर कैसा है।
2020 का सपना
सरकारी प्रतिनिधि कोई भी मंच मिलने पर बड़ी शिद्दत से अपनी यह चिंता जाहिर करते हैं कि भारत के उच्च संस्थानों से निकलने वाले अधिकांश ग्रेजुएट अनुसंधान और शोध की तरफ आकर्षित क्यों नहीं होते। इसकी कई सारी वजहें होंगी, लेकिन सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुरक्षा है, जो फिलहाल सरकार या निजी क्षेत्र, किसी के भी एजेंडे पर नहीं है। देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का माहौल बनाना होगा। विज्ञान को आम आदमी से जोड़ना होगा। इसके बिना हमारे विश्वविद्यालय अभी की तरह आगे भी सिर्फ डिग्री बांटने वाली दुकानें ही बने रहेंगे। सरकार ने भारत को 2020 तक दुनिया की पांच सबसे बड़ी वैज्ञानिक शक्तियों में शामिल करने का लक्ष्य रखा गया है। लेकिन मौजूदा नीतियों और सरकारी लालफीताशाही को ध्यान में रखें तो यह लक्ष्य लगभग असंभव है। 
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भारत में रिसर्च के मामले में

 ग्रोथ ग्राफ ठीक नहीं है

नवभारत टाइम्स| Dec 21, 2013

नोबेल पुरस्कार पाने में अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के वैज्ञानिक अक्सर आगे क्यों रहते हैं या भारत में विज्ञान के क्षेत्र में अपेक्षित प्रगति न होने के क्या कारण हैं? ऐसे सवालों पर फिजिक्स में सन् 1997 में नोबेल पुरस्कार विजेता फ्रांस के वैज्ञानिक प्रोफेसर क्लाउड कोहेन तानोजी से एनबीटी के प्रमुख संवाददाता दिनेश चंद्र मिश्र ने बातचीत की। अस्सी बरस पार कर चुके प्रफेसर तानोजी का मानना है कि जिंदगी खुद एक रिसर्च है। रोजाना कुछ न कुछ सीखने को मिलता है।
नोबेल पुरस्कार यूरोपियन वैज्ञानिकों को ही ज्यादा मिलने के पीछे क्या कारण है?
इन देशों में विज्ञान पर जितना काम होता है, दुनिया के शायद ही किसी अन्य देशों में होता हो। इसके पीछे बस यही कारण है। नोबेल पुरस्कार की प्रक्रिया पर सवाल उठाना गलत है। यह ऐसा सम्मान है, जिसको हर वैज्ञानिक पाने की चाह रखता है।
नोबेल रिसर्च के दौरान आपको किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा?
संघर्ष के मौके तो कई बार आए। हर वक्त मेरी पत्नी जैकलीन मेरा साथ देती रही। जब मैंने जैकलीन से शादी की, वह तीन बच्चों की मां थी। आज वही मेरे बच्चे हैं। जैकलीन ने मेरा लाइफ में हर मोर्चें पर मेरा साथ दिया है। मैं शुरू से रिसर्च में दिलचस्पी रखता था, इस कारण कोई खास परेशानी नहीं हुई।
आपको यह सम्मान किस रिसर्च पर मिला?
किसी तत्व के सबसे छोटे भाग को हम एटम कहते हैं। एटम के अंदर दो भाग होते हैं- प्रोटान और न्यूट्रान। इलेक्ट्रान इसके चारों ओर चक्कर लगाता है। एटम के प्रयोग के दौरान लेजर लाइट को ठंडा करने की तकनीक विकसित करने पर यह सम्मान सन् 1997 में मुझे मिला। इसको विज्ञान में कूलिंग एंड टैपिंग एटम्स थ्योरी के नाम से जाना जाता है। इसके बाद मुझे बहुत खुशी हुई कि मेरी मेहनत का फल मुझे मिला।
भारत के वैज्ञानिक क्या विश्वस्तरीय शोध में यूरोपियन वैज्ञानिकों से काफी पीछे हैं?
नोबेल पुरस्कार विज्ञान के जिन शोधों पर मिलता है, उनका स्तर बहुत ऊंचा होता है। इस रिसर्च पर जो खर्च आता है, वह किसी एक वैज्ञानिक के बस का नहीं होता। इसके लिए वहां की सरकार के साथ साइंस से जुड़ी संस्थाएं बहुत मदद करती हैं। भारत में ऐसे शोध बहुत कम हो पाते हैं। भारत के कई वैज्ञानिक रिसर्च के लिए यूरोपियन देशों में गए, वहां उनके काम को पूरी दुनिया ने खूब सराहा। सन् 2009 में कैमिस्ट्री का नोबेल प्राइज भारत के वैंकटरामन कृष्णन को मिला। अब वह अमेरिकन नागरिक हैं। भारतीय वैज्ञानिक दिमाग के मामले में अन्य देशों के लोगों से पीछे बिलकुल नहीं हैं, लेकिन यहां शोध के लिए सहूलियतें बहुत कम हैं।
कुल मिलाकर साइंस रिसर्च के क्षेत्र में आपकी नजर में भारत का क्या स्थान है?
भारत में साइंस रिसर्च के मामले में ग्रोथ ग्राफ ठीक नहीं है। मेरी नजर में यहां प्राइमरी स्टेज से साइंस पर फोकस करना काफी जरूरी है। यूरोपियन देशों में साइंस को प्राइमरी स्टेज से ही बढ़ावा मिलता रहा है। दूसरा कारण भारत में सामाजिक बंधन बहुत हैं। इससे विकास में अक्सर बाधा पैदा होती है। बहुतेरी महिलाएं साइंस के क्षेत्र में जाना भी चाहती हैं, लेकिन पारिवारिक बंधनों के कारण जा नहीं पातीं। भारत को साइंस पर गंभीरता और तेजी से ध्यान देना चाहिए।
अंतरिक्ष से मंगल तक पर भारत का दखल है, फिर भी आप कहते हैं रिसर्च में इंडिया आगे नहीं?
अंतरिक्ष और मंगल पर झंडा गाड़ने से पहले मानव जीवन के उत्थान के लिए हम विज्ञान का उपयोग क्या करते हैं, यह देखना बहुत जरूरी है। भारत को जो देखा और पढ़ा, उस लिहाज से कह सकता हूं कि यहां पर अंतरराष्ट्रीस शोध का स्तर नहीं के बराबर है। इसके पीछे भारत की आर्थिक स्थिति भी एक बड़ा कारण है। भारत रिसर्च में उतना पैसा नहीं खर्च करता, जितना यूरोपियन देश करते हैं। भारत से वैज्ञानिकों का यूरोपियन देशों में जाने के पीछे एक यही कारण है।
साइंस के प्रति भारत की सोच में क्या बदलाव होने चाहिए?
साइंस के प्रति सोच में बदलाव लाने का काम सरकार का होता है। यहां के स्टूडेंट्स में साइंस के प्रति माइंड मेकअप में भारी कमी है। साइंस कोई हौव्वा नहीं, वह एक विचार है। दिमाग में विचार आते हैं तो नये-नये प्रयोग भी सामने आते हैं। दरअसल, भारत के युवाओं की सोच में ही परिवर्तन लाने की जरूरत है।
भारत आने से पहले आपने क्या देखा और पढ़ा, अच्छा क्या लगा?
भारत में कुदरत का जो खजाना है, वह बहुमूल्य है। इसको विज्ञान में प्रयोग करके कई समस्याओं से निपटारा पाया जा सकता है। अब सबसे बड़ा संकट दुनिया में ऊर्जा का आने वाला है। भारत के पास सौर ऊर्जा जितनी मिलती है, उसका प्रयोग हो तो बिजली की परेशानी ही खत्म हो जाए। गुजरात में इसका प्रयोग मुझे इंटरनेट पर देखने को मिला, अच्छा लगा। ऐसा प्रयोग पूरे हिंदुस्तान में हो तो ऊर्जा संकट से छुटकारा मिल सकता है।
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