Monday 27 October 2014

भारत की मंगल यात्रा




इसरो ने बजाई मंगल की डोर-बेल

Tuesday September 23, 2014

लेखकः बलदेव राज दावर।।
पिछले दस महीनों से हमारी नजरें अपने पड़ोसी ग्रह मंगल पर टिकी हैं। वह हमारे रात के आकाश से अनुपस्थित नहीं रहा। पिछले साल 5 नवंबर को वह भारत के आकाश में रात के 1.55 बजे उदित होकर अगले दिन 2.40 बजे अस्त हुआ था। इस साल 8 अप्रैल को वह सूर्यास्त के समय पूर्व से उदित होकर सारी रात जगमगाया था और सूर्योदय के समय पश्चिम में अस्त हुआ था। इस सप्ताह भी वह लगभग 11 बजे उदित होकर शाम 9.36 पर अस्त हुआ करेगा। यानी इन दिनों सूर्यास्त से दो घंटे बाद तक हमें उसकी हल्की-सी झलक पश्चिमी आकाश में मिलती रहेगी। लेकिन पिछले दस महीनों में हमारी डिजिटल नजरें मंगल ग्रह से ज्यादा मंगलयान पर टिकी हैं, जो 5 नवंबर को श्रीहरिकोटा से रवाना हुआ था और शून्यमय अंधकार में करोड़ों किलोमीटर की दूरी लांघता हुआ अभी मंगल के द्वार पर दस्तक दे रहा है। इस अरसे में अगर आप किसी दिन सौरमंडल के ऊपर जाकर वहां से नीचे देखते तो आप को एक विशाल और अद्भुत दृश्य दिखाई देता। आप देखते कि इस दौरान न पृथ्वी ठहरी हुई थी न मंगल। दोनों ग्रह बड़ी तेजी से सूरज की परिक्रमा कर रहे थे। पृथ्वी 30 किमी प्रति सेकंड और मंगल 24 किमी प्रति सेकंड की रफ्तार से दौड़ रहा था। आप जानते हैं कि जिन कक्षाओं (आर्बिट्स) में दोनों ग्रह सूरज की परिक्रमा कर रहे हैं, वे आपस में पास-पास हैं। पृथ्वी की कक्षा अंदर पड़ती है, मंगल की बाहर। हरेक 780 दिनों के बाद पृथ्वी मंगल को ओवरटेक करती है। 
सोया हुआ यान
5 नवंबर 2013 को मंगल पृथ्वी के आगे-आगे चल रहा था। दोनों के बीच तब 28 करोड़ किमी का फासला था। इस साल 8 अप्रैल को पृथ्वी ने मंगल को ओवरटेक किया था। उस समय सूरज, पृथ्वी और मंगल तीनों कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली स्थिति में आ गए थे। पृथ्वी की बाईं तरफ सूरज था तो दाईं तरफ मंगल। पृथ्वी और मंगल एक दूसरे के बहुत करीब भी आ गए थे (केवल 9 करोड़ किमी)। लेकिन आज हम मंगल को बहुत पीछे छोड़ आए हैं। इन दोनों ग्रहों की आपसी दूरी इस वक्त 21.5 करोड़ किमी को छू रही है। आप को यह जान कर आश्चर्य होगा कि इन पिछले दस महीनों में मंगलयान चल नहीं रहा था। वह सो रहा था। सच यह है कि आज भी मंगलयान सोया-सोया और पृथ्वी की ग्रेविटी के वश में रहता हुआ, हर पल मानो पृथ्वी पर गिर रहा है। इस बीच इसरो ने मंगलयान से दो-तीन दफे संपर्क किया था। इस साल 12 जून को यान के इंजन को जगाया और उसकी गति तथा दिशा में जो मामूली परिवर्तन जरूरी थे, वे कर दिए। अभी कल ही, यानी 22 सितंबर को एक बार फिर यान के इंजन को चला कर देखा गया कि उसके कल-पुर्जों का स्वास्थ्य कैसा है। मंगल की कक्षा में प्रवेश के लिए जरूरी हर तरह की जांच-पड़ताल भी कर ली गई। बताया जा रहा है कि सब ठीक-ठाक है। पृथ्वी से चलकर मंगल के निकट पहुंचने वाले किसी यान के पास चार विकल्प होते हैं। एक, वह मंगल के पास से होता हुआ निकल जाए और अंतरिक्ष में भटक जाए। दो, वह अपनी स्पीड को इतना कम कर ले कि मंगल की ग्रैविटी उसे पकड़ ले और वह मंगल के गिर्द घूमने लगे। तीन, वह मंगल से टकरा कर उस पर क्रैश लैंड कर जाए। चार, टकराने से पहले उल्टी दिशा में जोर लगा कर वह मंगल की सतह पर सॉफ्ट लैंड कर जाए। इसरो ने अपने मंगलयान के लिए नंबर दो वाले विकल्प को चुना है। यानी, मंगलयान मंगल पर उतरेगा नहीं, केवल मंगल के आसमान में एक नकली चांद बन कर उसकी परिक्रमा करने लगेगा और कई महीनों के लिए उस दुनिया में तांक-झांक करता रहेगा। 
तीन दिन और
हमारा मंगलयान मंगल के गिर्द घूमने लगे, इसके लिए यान को जगाकर उसकी स्पीड पहले से कम करनी होगी और अपनी दिशा को ठीक निशाने पर साधना होगा। यह काम आसान नहीं। पृथ्वी और मंगल के बीच का फासला इतना अधिक है कि रिमोट द्वारा भेजे हुए हमारे सिग्नल को जाने-जाने में ही 12 मिनट लगते हैं। इतनी दूर से भेजे हुए सिग्नल इतनी बारीकी वाले कामों को अंजाम नहीं दे सकते। इसलिए मंगलयान को मंगल के करीब पहुंच कर जो कुछ भी करना है, वह इसरो के हाथ में नहीं होगा। यह कार्य-कलाप खुद मंगलयान के हाथों में सौंपा गया है। यानी मंगल के निकट पहुंच कर वहां की पल-पल की टोह लेने और स्थिति, स्पीड, दूरी और दिशा के अनुसार एक्शन लेने का काम खुद यान करेगा। यान के कंप्यूटर में आवश्यक सॉफ्टवेयर पहले से भर दिया गया है। लेकिन वह ठीक वक्त पर सही निर्णय ले पाएगा या नहीं, इस सवाल का पुख्ता जवाब 24 सितंबर से पहले कोई नहीं दे सकता। मंगल अभियान के कई सफल प्रयास अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ ने किए हैं। लेकिन, पहले ही प्रयास में किसी देश को सफलता मिल गई हो, ऐसा अभी तक नहीं हुआ। क्या यह कीर्तिमान स्थापित करने का सेहरा भारत के सिर पर बंधेगा? जवाब के लिए इंतजार करें सिर्फ तीन दिन और।
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स्वर्णिम सफलता

Thu, 25 Sep 2014

आखिरकार भारत ने वह कर दिखाया जो इसके पहले अपने प्रथम प्रयास में दुनिया का कोई देश नहीं कर सका था-अमेरिका, यूरोप और रूस भी नहीं। भारत की मंगल तक की यात्रा इसलिए भी बहुत खास है, क्योंकि यह समय और धन के लिहाज से भी बेहद किफायती रही। महज चार सौ पचास करोड़ रुपये खर्च कर हम लाल ग्रह तक पहुंच गए। दुनिया इससे चकित होगी और उसे होना भी चाहिए कि भारत ने इतनी कम लागत में इतनी बड़ी कामयाबी कैसे हासिल कर ली? यह सफलता कितनी स्वर्णिम है, इसे इससे समझा जा सकता है कि अमेरिका, रूस और यूरोप के इस तरह के अभियानों की सफलता का प्रतिशत काफी कम है। एशिया में तो किसी देश का मंगल अभियान कामयाब नहीं हो सका है। सफल मंगल अभियान ने एक ऐसे समय भारत के मान-सम्मान को बढ़ाने का काम किया है जब विश्व समुदाय एक बार फिर से हमारी ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। सीमित साधनों को देखें तो भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने सचमुच असंभव को संभव कर दिखाया है। उन्होंने इतिहास ही नहीं रचा, बल्कि इतिहास ने उन्हें कुछ अद्भुत रचते हुए देखा है। भारत की मेधा शक्ति ने अपना परचम शान से फहराया है। एक कालजयी घटना घटी है और इस पर हर हिंदुस्तानी को गर्व से भर जाना चाहिए। मंगल अभियान की कामयाबी के साक्षी रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह सही कहा कि यह दिन अंतरिक्ष वैज्ञानिकों के सम्मान में आनंद उत्सव मनाने का है। वे अभिनंदन के पात्र हैं। उनकी कामयाबी के संदर्भ में ऐसे किसी नतीजे पर नहीं पहुंचा जाना चाहिए कि मंगल अभियान का केवल प्रतीकात्मक महत्व है और फिर प्रतीकों की अपनी महत्ता होती है। वे राष्ट्र के गौरव का बखान करने के साथ उसकी गरिमा में चार चांद लगाते हैं।
यह उम्मीद की जानी चाहिए कि मंगल अभियान हमारे वैज्ञानिक समुदाय को उत्साहित करने के साथ देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण करने में भी सहायक होगा जिससे किशोरों और युवाओं में विज्ञान के प्रति वैसी रुचि बढेगी जैसी कि अपेक्षित है। मंगल अभियान के रूप में भारत की वैज्ञानिक और तकनीकी श्रेष्ठता का जो भव्य प्रदर्शन हुआ है उससे देश में आत्मविश्वास का संचार होने के साथ ही एक नई ताकत मिलने की भी उम्मीद की जाती है। अंतरिक्ष विज्ञान के साथ-साथ भारतीय वैज्ञानिक परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में भी अपनी सफलता की गाथा लिख चुके हैं। इसी तरह मिसाइल तकनीक के क्षेत्र में भी हमारे वैज्ञानिकों की उपलब्धियां हमारे लिए गर्व का विषय हैं, लेकिन अभी कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां चुनौतियां जस का तस खड़ी हैं। हमारे नीति नियंताओं को यह देखना होगा कि इन चुनौतियों से कैसे पार पाया जा सके? यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि भारत को सामान्य हथियारों एवं युद्धक सामग्री के आयात में भारी-भरकम धनराशि खर्च करनी पड़ रही है। यही स्थिति अन्य अनेक उपकरणों के मामले में भी है। आखिर विज्ञान एवं तकनीक के तमाम क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलता के बावजूद हमारी ऐसी स्थिति क्यों है? यह वह सवाल है जिसका जवाब खोजा ही जाना चाहिए। यह मुश्किल नहीं, क्योंकि हमारे वैज्ञानिकों ने मंगल अभियान के जरिये यही साबित किया है कि वे किसी भी तरह की चुनौती का सामना करने में समर्थ हैं।
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करिश्मे जैसी एक कामयाबी

Thu, 25 Sep 2014

आखिर वह बेला आ ही गई जिसकी हमें एक अर्से से प्रतीक्षा थी अर्थात् यान का मंगल की कक्षा में प्रवेश जो निश्चय ही संशय की घड़ी थी, क्योंकि अभी तक किसी भी राष्ट्र का प्रथम प्रयास सफल नहीं हुआ था। 24 सितंबर, 2014 को प्रात: 7:17 बजे इंजन को दागा गया जिसका प्रज्जवलन 24 मिनटों तक जारी रहा। 'लैम' मोटर के साथ ही 8 छोटे थ्रस्टर्स भी दागे गए। इसका मकसद यान की गति को कम करना था अन्यथा उसकी मंगल से भिड़ंत हो सकती थी। मिशन सकुशल अपने अंजाम तक पहुंचा और 8:02 बजे मंगल की कक्षा में प्रविष्ट हो गया। भारत मर्शियन इलीट क्लब में सम्मिलित ही नहीं हुआ, बल्कि विश्व का पहला राष्ट्र बन गया जिसने अपने पहले ही प्रयास में ऐसी सफलता अर्जित की। मिशन की सबसे खास बात यह है कि इसकी कुल लागत मात्र 450 करोड़ आई है। इससे कहीं अधिक राशि तो हमें अपने इन्सेट/जी-सेट श्रृंखला के उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए एरियन स्पेस को देने पड़ते हैं। इस समय हमारे यान की लाल ग्रह से अधिकतम दूरी 80,000 किमी और निकटतम दूरी 423 किमी है और उसने मंगल की प्रदक्षिणा आरंभ कर दी है।
इस ऐतिहासिक उपलब्धि के अवसर पर हमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के जनक विक्रम अंबालाल साराभाई की याद आ रही है जिन्होंने अंतरिक्ष कार्यक्रम का एक नन्हा बिरवा रोपा था जो आज वट वृक्ष बन चुका है। स्मरण कीजिए जब उन्होंने ऐसे प्रयास आरंभ किए थे, तब बहुत सी आपत्तिायां जताई गई थीं, लेकिन भारत की खोई गरिमा को पुनर्जीवित करने के लिए उन्होंने डॉ. सीवी रमन, प्रो. प्रफुल्ल चंद राय के मार्ग का अनुसरण किया और आज भारत अंतरिक्ष की बड़ी शक्ति है। उस समय डॉ. साराभाई ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा था कि भारत जैसे निर्धन राष्ट्र को इस दिशा में निवेश करना इसलिए जरूरी है, क्योंकि ऐसा न करने से हम राष्ट्रनिर्माण की विकासात्मक परियोजनाओं से विमुख हो जाएंगे। हमें अंतरराष्ट्रीय मंच पर किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं करनी है। उपग्रह अंतरिक्ष में चक्कर काटने वाली आंखें हैं जो धरती और धरती के संसाधनों की गहन जांच-पड़ताल करती हैं। इससे हम धरती के संसाधनों का बेहतर प्रबंधन कर सकते हैं और इसका लाभ देशवासियों को पहुंचा सकते हैं जैसाकि देश के संविधान में कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की गई है। कहना न होगा कि भारत प्रक्षेपास्त्र प्रौद्योगिकी, परमाणु संसाधनों के क्षेत्र में भी लोहा मनवा चुका है। सबसे खास बात यह है कि भारत ने अपने अत्यंत सीमित बजट में ऐसी अप्रतिम उपलब्धियां हासिल की हैं जो किसी भी राष्ट्र के लिए नामुमकिन थीं। हमारी इन उपलब्धियों पर भावी पीढ़ी और दुनिया हमें हसरत की निगाह से देखेगी।
इस क्रम में 5 नवंबर, 2013 'इसरो' के इतिहास का एक गौरवमयी क्षण है जब हमारे ध्रुवीय रॉकेट के लिफ्ट ऑफ के साथ ही भारत का मंगल मिशन आरंभ हुआ। सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र, श्रीहरिकोटा से दोपहर 2:38 बजे ध्रुवीय रॉकेट ने उड़ान भरी, 44 मिनटों की यात्रा के बाद इसने मंगलयान को पृथ्वी की कक्षा में सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया। 7 नवंबर, 2013 को यान की कक्षा के उन्नयन की प्रक्रिया आरंभ हुई। 'इस्ट्रैक' बेंगलूर के वैज्ञानिकों ने इसी दिन भोर में 1:17 बजे यान के 440 न्यूटन इंजन के प्रज्जवलन की कमान भेजी। इस इंजन को तकनीकी भाषा में 'लैम' कहते हैं जो धक्का देकर यान को अपनी कक्षा से विचलित नहीं होने देता है। इसी को नोदन प्रणाली भी कहते हैं। इंजन सात मिनट तक प्रज्जवलित रहा और इसने यान की कक्षा वर्धित कर दी। मार्स आर्बिटर की कक्षा के उन्नयन का दूसरा चरण 8 नवंबर, 2013 जबकि तीसरा चरण 9 नवंबर, 2013 को संपन्न हुआ। इससे यान का दूरस्थ बिंदु 40,186 किमी से बढ़कर 71,636 किमी हो गया। मगर इसके चौथे चरण में एक बाधा उत्पन्न हुई और यान 1,00,000 किमी के दूरस्थ बिंदु के लक्ष्य को न पा सका। इस चरण में यान के दूरस्थ बिंदु को 71,623 किमी से बढ़ाकर एक लाख किमी करना था, लेकिन 35 मीटर प्रति सेकंड के वेग से यह मात्र 78,276 किमी तक की ऊंचाई तक ही जा सका, क्योंकि यान को हम 130 किमी प्रति सेकंड का वेग नहीं दे सके।
यान की कक्षा के उन्नयन की आखिरी प्रक्रिया 30 नवंबर और 1 दिसंबर की रात को 12:42 बजे आरंभ हुई और प्राय: 25 दिनों तक धरती की परिक्त्रमा करने के बाद यान को भू-केंद्रिक कक्ष से बाहर निकाल कर सूर्य-केंद्रिक कक्ष में डाल दिया गया और पूर्व योजना के अनुसार 300 दिनों तक यह सूर्य की प्रदक्षिणा करके अंतत: 24 सितंबर, 2014 को मंगल की कक्षा में प्रविष्ट कर गया। इस बीच हमें मंगलयान की लगातार निगरानी करनी पड़ी। इसके प्रक्षेप पथ में यदि विचलन हो गया होता तो हमारा यान भटक जाता। इसके लिए जो सुधार प्रक्त्रिया अपनाई जाती है उसे टीसीएम अर्थात प्रक्षेप पथ सुधार युक्ति कहते हैं। इसका पहला चरण 11 दिसंबर, 2013 को संपन्न हुआ। अगला टैजेक्ट्री करेक्शन कोर्स 11 जून, 2014 को संपन्न किया गया, लेकिन ये अपेक्षाकृत छोटे न्यूटन इंजन थे। अभी भी मंगलयान में 304 किग्रा का प्रणोदक शेष था जो यान को प्रणोदित करके अंतत: उसे मंगल की कक्षा में प्रविष्ट कराता। इसके लिए 440 न्यूटन द्रव इंजन को प्रज्जवलित करना था, जो 300 दिनों तक शीतनिद्रा में था। अंतत: उसे जाग्रत करना था ताकि यान की मंगल कक्षा में प्रविष्टि की प्रक्रिया संपन्न हो सके। इसके लिए 22 सितंबर, 2014 को ढाई बजे दोपहर इसकी मोटर को चार सेकंड तक दागा गया और यह उपक्रम पूरी तरह सफल रहा। हमारा मार्स आर्बिटर अपने साथ पांच नीतिभार (पेलोड) ले गया है जो मंगल का अन्वेषण करेंगे। इसका 'लैप' (लाइमन अल्फा फोटोमीटर) नामक फोटोमीटर वहां पर ड्यूटेरियम और हाइड्रोजन की सापेक्षिक प्रचुरता की माप करेगा। ड्यूटेरियम/हाइड्रोजन अनुपात के मापन से मंगल के ऊपरी वायुमंडल में पानी की क्षति की मात्रा का पता चलेगा। दूसरा नीतिभार (पेलोड) मीथेन सेंसर ़(मीथेन सेंसर फॉर मार्स-एमएसएम) मंगल के वातावरण में मीथेन का मापन करेगा और इसके स्नोतों की भी जानकारी प्राप्त करेगा।
इसका तीसरा पेलोड मेन्का (मार्स एक्सोफेरिक न्यूट्रल कंपोजीशन एनालाइजर) द्रव्य विश्लेषक है जो मंगल के बर्हिमंडल में उपस्थित कणों के निष्क्रिय संगठन का विश्लेषण करेगा। चौथा पेलोड तापीय अवरक्त स्पेक्ट्रोमीटर (थर्मल इन्फ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर) है जो मंगल की सतह के ताप को मापेगा। इससे हमें मंगल की सतह के संगठन के मापन और वहां पर खनिजों की खोज में मदद मिलेगी। पांचवां पेलोड मार्स कलर कैमरा है जो हमें मंगल की सतह के चित्र भेजेगा। इस ऐतिहासिक अवसर पर 'इसरो' के तपोनिष्ठ इंजीनियरों को हमारा नमन।
[लेखक शुकदेव प्रसाद, विज्ञान विषयों के जानकार हैं]
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मंगल ही मंगल

नवभारत टाइम्स | Sep 25, 2014

मंगल मिशन की कामयाबी पर हरेक भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो गया है। इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) का मार्स ऑर्बिटर मिशन (मंगलयान) बुधवार की सुबह मंगल की कक्षा में प्रवेश कर गया। इस तरह भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जिसने अपने पहले ही प्रयास में यह सफलता हासिल की है। चीन और जापान के अब तक के सारे प्रयास विफल रहे हैं, जबकि अमेरिका को मंगल तक पहुंचने के लिए सात कोशिशें करनी पड़ी थीं। मंगल की कक्षा में यान को सफलतापूर्वक पहुंचाने के बाद भारत इस लाल ग्रह की कक्षा में या जमीन पर यान भेजने वाला चौथा देश बन गया है। अब तक यह उपलब्धि केवल अमेरिका, यूरोप और रूस को हासिल हुई थी। मंगलयान को पिछले साल 5 नवंबर को इसरो के श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से रवाना किया गया था और 1 दिसंबर को यह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकल गया था। इस मिशन के लिए हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने दिन-रात मेहनत की है। हमारा यह प्रोजेक्ट लगभग पूरी तरह स्वदेशी है और किफायती भी। गौरतलब है कि इस पर 450 करोड़ रुपये की लागत आई है, जो मंगलयान के जरा ही पहले वहां पहुंचे अमेरिकी यान 'मैवन' की लागत का दसवां हिस्सा है। जाहिर है, हम बेहद कम खर्च में ही एक महत्वपूर्ण अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। इस कोशिश ने हमें चोटी का स्पेस पावर तो बना ही दिया है, भविष्य में यह हमें कई और तरह के फायदे भी पहुंचाने वाला है। मंगल मिशन का मकसद मंगल ग्रह पर जीवन के सूत्र तलाशने के साथ ही वहां के पर्यावरण की जांच करना भी है। वहां यह मीथेन गैस के स्रोत का पता लगाएगा, साथ ही वहां की खनिज संपदा का अध्ययन भी करेगा। मून मिशन और मंगल मिशन की सफलता के बाद अब यह बहस बेमानी हो गई है कि गरीबी और दूसरी समस्याओं से ग्रस्त भारत को अपना स्पेस प्रोग्राम आगे बढ़ाना चाहिए या नहीं? सच तो यह है कि इसरो जल्द ही अपने स्पेस बिजनस के जरिये अपने सारे खर्चे खुद ही निकालने लगेगा। इस मिशन की कामयाबी के बाद इसरो को विदेशी सैटलाइट्स लॉन्च करने के नए ऑर्डर मिलने के पूरे आसार हैं। बहरहाल, पिछले कुछ सालों में इसरो को मिली जबर्दस्त कामयाबियों ने देश के वैज्ञानिक ढांचे में एक तरह का असंतुलन पैदा कर दिया है। उसी के जोड़ का समझे जाने वाले संगठन डीआरडीओ के पास काफी समय से दिखाने को कुछ भी नया नहीं है। रक्षा के क्षेत्र में आयात पर हमारी निर्भरता कम होने का नाम नहीं ले रही है। कृषि और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में भी हमारे शोध और अनुसंधान की हालत काफी कमजोर है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इसरो की शानदार सफलता से हमारे बाकी वैज्ञानिकों को भी हौसला मिलेगा और उन्हें इतने संसाधन उपलब्ध कराए जाएंगे कि अपने-अपने दायरे में वे भी कोई नई जमीन तोड़ सकें। साइंस का लाभ रोजमर्रा के जीवन तक पहुंचाने का यही तरीका हो सकता है।
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मंगलयान की कामयाबी

24-09-14 

मंगलयान का सफलतापूर्वक मंगल की कक्षा में प्रवेश कर जाना भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है। पहली बार भारत का कोई अंतरिक्ष यान सौरमंडल के किसी ग्रह तक पहुंचा है। चंद्रयान भी एक बड़ी सफलता थी, लेकिन दोनों अभियानों में फर्क यह है कि चंद्रयान को लगभग चार लाख किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और मंगलयान को 68 करोड़ किलोमीटर की। गौरतलब यह भी है कि भारत का पहला ही मंगल अभियान कामयाब हुआ है। सारे ही अंतरिक्ष अभियान जटिल होते हैं, लेकिन यह अभियान इसरो के तमाम अभियानों से कई गुना जटिल था। इसरो ने इस अभियान में अपने कम शक्तिशाली पीएसएलवी रॉकेट का इस्तेमाल किया और बहुत सूझबूझ से इस रॉकेट की क्षमता को बढ़ाया। इस अभियान से इसरो की और उसके पीएसएलवी रॉकेट की अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में प्रतिष्ठा में जबर्दस्त इजाफा होगा और अंतरराष्ट्रीय साझा अभियानों में इसरो की भागीदारी बढ़ेगी। इसी अभियान में पहली बार बेंगलुरु के निकट बाइललू में स्थित इसरो के सुदूर अंतरिक्ष नेटवर्क का भी परीक्षण हुआ और अब यह नेटवर्क तमाम अंतरराष्ट्रीय अभियानों की देखरेख के लिए इस्तेमाल हो सकेगा। इसरो के लिए फिलहाल सबसे बड़ी चुनौती जीएसएलवी का सफल परीक्षण करना है। जीएसएलवी के पिछले परीक्षण नाकाम हो चुके हैं और अगर भारत को सुदूर अंतरिक्ष कार्यक्रम को आगे बढ़ाना है, तो जीएसएलवी रॉकेट की कामयाबी उसमें अनिवार्य है। भारत के भावी अंतरिक्ष कार्यक्रमों में चंद्रयान-2 और सूर्य के निरीक्षण के लिए आदित्य यान शामिल हैं। मंगलयान की कामयाबी का एक अच्छा पक्ष यह है कि इससे देश और विदेश से इसरो को ज्यादा प्रोत्साहन और सहयोग मिलेगा। इसरो बहुत किफायती ढंग से अपना काम करता है, यह बहुत अच्छी बात है, लेकिन अगर उसे ज्यादा संसाधन मिले, तो जाहिर है कि वह ज्यादा बड़ी योजनाओं पर काम कर सकेगा। इसका एक और फायदा यह हो सकता है कि भारत के नौजवानों में विज्ञान की ओर रुझान बढ़े। भारत में इन दिनों तमाम नौजवानों की महत्वाकांक्षा प्रबंधन, बैंकिंग व आईटी क्षेत्रों में है, क्योंकि पैसा इन्हीं में है। लेकिन सच यह भी है कि अगर भारत को सचमुच आर्थिक महाशक्ति बनना है, तो उसे विज्ञान के तमाम क्षेत्रों में बुनियादी शोध करने वाले वैज्ञानिकों की जरूरत होगी। दुनिया के तमाम देशों की प्रतिस्पर्धा में वे ही देश आगे रहते हैं, जहां मौलिक शोध होते हैं। भारत में गिने-चुने ऐसे संस्थान हैं, जहां श्रेष्ठ दर्जे का शोध होता है। भारत में विश्वविद्यालयों की तादाद बहुत बड़ी है, लेकिन उंगलियों पर गिने जा सकने वाले विश्वविद्यालय ही हैं, जहां सचमुच शोध होता है। जरूरी यह है कि सरकार और समाज यह समझे कि बिना विज्ञान को प्रोत्साहित किए देश आगे नहीं बढ़ सकता। अंतरिक्ष विज्ञान में भविष्य में बहुत तरक्की होने वाली है। अंतरिक्ष की खोज का सिर्फ अकादमिक महत्व नहीं है, उसके कई व्यावहारिक निहितार्थ भी हैं। आज भी पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किए गए तमाम उपग्रह हमारे जीवन की छोटी-से-छोटी चीज से जुड़े हुए हैं और भविष्य में इनका दायरा बहुत बढ़ने वाला है। मंगल तमाम देशों के अंतरिक्ष कार्यक्रमों में बहुत महत्वपूर्ण है, इसी वक्त पांच विभिन्न अंतरिक्ष यान या तो मंगल की परिक्रमा कर रहे हैं या मंगल की सतह पर मौजूद हैं। इस प्रक्रिया में जो जानकारी मिलती है या टेक्नोलॉजी में जो विकास होता है, उसके कई व्यावहारिक फायदे हैं। भारत के यान का मंगल तक पहुंचना इस मामले में देश के लिए बहुत उपयोगी है।
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मंगल-मय भारत

हमारी ‘मंगलमय’ यात्रा के धमाके दुनिया में गूंज रहे हैं- हमारा ‘मॉर्स ऑर्बिटर मिशन’ मंगल की कक्षा तक अपने पहले ही प्रयास में पहुंचने वाला दुनिया का पहला अंतरिक्ष यान बन गया है। अमेरिका, रूस और यूरोप के बाद अब हमारा देश भी मंगल की चुनौती को साधने में सफल रहा है- एशियाई महाशक्ति कहलाने वाले जापान और चीन भी इसमें पिछड़ गए हैं। हमारे अंतरिक्ष यान ‘मॉम’ के मंगल की कक्षा में प्रवेश करने का मौका ऐसा ऐतिहासिक था कि इन दुर्लभ लम्हों के गवाह बनने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद ‘इसरो’ के मुख्यालय पहुंच गए थे। चंद्रमा के बाद अब मंगल पर विजय हासिल कर हमने दिखा दिया है कि तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का मुकाबला नहीं है। इस सफलता से उत्साहित ‘इसरो’ ने घोषणा की है कि अब अगला निशाना खुद सूरज बनेगा और हमारे अंतरिक्ष यान उसके अत्यंत तप्त और चमकदार कोरोना का अध्ययन करने निकलेंगे। मंगल अभियान की यह उपलब्धि ऐसे अहम मौके पर आई है जब नरेंद्र मोदी सरकार ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को सफल बनाने की जुगत में लगी हुई है। यह सफलता अरबों खरब के अंतरिक्ष बाजार में भारत को गंभीर खिलाड़ी के रूप में प्रस्तुत करेगी। मंगल की चुनौती इतनी दुरूह है कि इसे लेकर शुरू किए गए तमाम अभियानों में से आधे से भी कम सफलता की मंजिल तक पहुंच पाए। हमारे वैज्ञानिकों के लिए पहला मौका था जब वे धरती की आकर्षण सीमा से बाहर अंतरिक्ष यान को भेजने का प्रयोग कर रहे थे। मंगल तक पहुंचने के लिए ‘मॉम’ को चौंसठ करोड़ किमी से अधिक की दूरी तय करने की चुनौती झेलनी थी। तीन साल पहले चीन और रूस ने मिल कर मंगल तक पहुंचने की कोशिश की थी लेकिन उनका यान पृथ्वी की कक्षा से बाहर ही नहीं निकल पाया था। भारत की पहली कोशिश ही न केवल सफल रही बल्कि पूरा अभियान त्रुटिरहित रहा। इसके बावजूद इस अभियान को हमने अन्य देशों के मुकाबले कई गुणा कम खर्च पर पूरा किया। इससे दुनिया के गरीब और विकासशील देश भी अंतरिक्ष विज्ञान से जुड़ने और इसका लाभ उठाने का सपना देख पाएंगे और इसमें भारत उनका विश्वसनीय साझेदार बन सकता है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने ‘दक्षेस’ देशों के लिए खास सेटेलाइट का प्रस्ताव दिया था और ‘इसरो’ से इस दिशा में काम करने की गुजारिश की थी। इस अभियान को सफल बना कर हमने साबित कर दिया है कि सुदूर अंतरिक्ष के शोध में भारत दुनिया के आगे नए द्वार खोल सकता है। दुनिया शिद्दत से ऐसे किसी ग्रह की तलाश में है जो पृथ्वी पर महाआपदा के गंभीर खतरों के वक्त इंसान की शरणस्थली बन सके। मंगल इसके लिए काफी उपयुक्त प्रतीत होता है क्योंकि वैज्ञानिकों की नजर में वहां कभी जीवन का अस्तित्व था। बेशक आज की तारीख में वह जीवन के लिए उपयुक्त नहीं रह गया है लेकिन वहां बसने की संभावनाएं तलाशी जा सकती हैं। मंगल के अध्ययन से यह भी पता लगाया जा सकता है कि किन कारणों से वहां का माहौल जीवन विरोधी बन गया। बढ़ता प्रदूषण आज पृथ्वी का भविष्य भी संकट में डाल रहा है। ऐसे में बचाव का रास्ता हमें मंगल से भी मिल सकता है। इस अभियान की सफलता अगर हमारे देश में विज्ञान की उन्नति के रास्ते खोलती है और युवाओं को इस क्षेत्र की ओर आकृष्ट करती है तो यह असल कमाल होगा।
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इतिहास में दर्ज हो गया यह दिन

विश्लेषण के कस्तूरीरंगन

जो कहते हैं कि हमें अपने यहां मौजूद गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी को देखते हुए अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर इतनी राशि खर्च नहीं करनी चाहिए, वे गलत र्तकों का सहारा लेते हैं बेशक देश को संपन्नता चाहिए लेकिन आर्थिक तौर पर शक्तिशाली होने के लिए जरूरी है कि देश बाकी क्षेत्रों में भी ताकतवर हो। चाहे रणनीतिक क्षमता हो या खेतीबाड़ी का मामला, राष्ट्रीय सुरक्षा हो या बेहतर जीवन स्तर का मसला- सभी चीजें विज्ञान और उन्नत तकनीक के इस्तेमाल से ही निखरती हैं चौबीस सितम्बर का इंतजार भारत ही नहीं, दुनिया के सभी देशों को बेसब्री से था। मंगल मिशन की हमारी कामयाबी को लेकर एक अंदेशा था लेकिन उम्मीद उस पर भारी थी। मन के किसी कोने में यह विास था कि हम कामयाब होंगे और ऐसा ही हुआ। यह दिन भारत ही नहीं, दुनिया के लिए अविस्मरणीय रहेगा। हमारा मंगल यान मंगल ग्रह की कक्षा में कामयाबीपूर्वक प्रवेश कर चुका है। पूरे देश के लिए यह एक कालजयी घटना है। हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत ने उस श्रेणी में एकमात्र देश के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ली है जिसने पहली ही कोशिश में ऐसा कारनामा कर दिखाया। मंगलयान की सफलता उन 24 मिनटों पर निर्भर थी जिसमें यान में मौजूद इंजन को स्टार्ट किया जाना था। दरअसल मंगलयान की गति को धीमी करना थी ताकि यान मंगल ग्रह के गुरुत्वाकर्षण में खुद ब खुद खिंचकर उसकी कक्षा में स्थापित हो जाए। यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हमने जैसा चाहा वैसा ही हुआ। इसके लिए इसरो से जुड़े वैज्ञानिकों की जितनी तारीफ की जाए, कम है। उन लोगों की भी तारीफ की जानी चाहिए जिन्होंने इस अभियान को किसी न किसी रूप में सपोर्ट किया। कामयाबी का यह समय तालियां बजाने का है, जश्न मनाने का है। इस अभियान की सफलता के लिए पिछले दस महीनों से दो सौ वैज्ञानिक रात-दिन काम कर रहे थे। मंगल यान पिछले साल नवम्बर में मंगल यान सफलतापूर्वक लांच किया गया था। उससे पहले भी वैज्ञानिकों को दिन-रात एक करना पड़ा। शानदार बात यह भी है कि हमने यह पूरा काम अब तक सबसे कम बजट में किया। नासा के अभियान हमारे अभियान से काफी महंगे रहे हैं। हमारी लागत 450 करोड़ रपए है जो नासा के अभियान का दसवां हिस्सा है। जो कहते हैं कि हमें अपने यहां मौजूद गरीबी और बुनियादी सुविधाओं की कमी को देखते हुए अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर इतनी राशि खर्च नहीं करनी चाहिए, वे गलत र्तकों का सहारा लेते हैं। अगले 15 सालों में हम अमेरिका और चीन के बाद तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश होंगे। बेशक देश को संपन्नता चाहिए लेकिन आर्थिक तौर पर शक्तिशाली देश होने के लिए जरूरी है कि देश बाकी क्षेत्रों में भी ताकतवर हो। याद रखिए कि चाहे रणनीतिक क्षमता हो या खेतीबाड़ी का मामला, राष्ट्रीय सुरक्षा हो या बेहतर जीवन स्तर का मसला- सभी चीजें विज्ञान और उन्नत तकनीक के इस्तेमाल से ही निखरती हैं। हमें इस रूप में विज्ञान की अहमियत समझनी होगी। यह समझना होगा कि अंतरिक्ष कार्यक्रम सिर्फ ब्रह्मांड के रहस्यों से परदा हटाना नहीं बकि वह जरिया है जिससे विकास के अन्य पहलुओं को भी लाभ होता है। फिर हमारी तकनीक सबसे सस्ती है। हमने अपनी जरूरतों के आधार पर कम पैसे में ज्यादा कामयाबी हासिल करने थी। यह महत्वपूर्ण तकनीक हमने विकसित कर ली है। भारतीय वैज्ञानिकों को इसके लिए भी शाबासी मिलनी चाहिए। हमारी सस्ती तकनीक को देखते हुए आगे संभव है कि दूसरे देश इसका लाभ लेना चाहें। हमारे द्वारा उनके लिए उपग्रह निर्माण के रास्ते खुलेंगे और इसका एक व्यावसायिक पक्ष भी होगा। हमारा मंगल मिशन एक विशाल परियोजना रही है। विश्व प्रोद्यौगिकी के विकास की प्रक्रिया में अपनी भूमिका बढ़ाने की इच्छा रखने वाले दुनिया के कई दूसरे देशों की तरह हम भी अंतरिक्ष अनुसंधानों की ओर अपना फोकस बढ़ा रहे हैं। दरअसल उच्च प्रौद्योगिकी संपन्न महाशक्तियों के बीच खड़े होने के लिए राष्ट्रीय अंतरिक्ष अभियान का होना बहुत जरूरी है। हमारा मंगल मिशन खगोलीय खोज कार्यक्रम का तार्किक विस्तार रहा है। हमने दुनिया के सामने किफायती मॉडल पेश कर दिया है। हमने अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम में साझेदार बनने की योग्यता हासिल कर ली है। भविष्य में जब मंगल से जुड़े मानवयुक्त या अन्य महत्वपूर्ण मिशन पर अमल होगा तो निश्चित ही भारत नियंतण्र समुदाय का हिस्सा होगा। ऐसा स्वाभाविक तौर पर होगा क्योंकि हमने दिखा दिया है कि मंगल पर फतह करना हमारे वश की बात है। फिर यह याद रखने की जरूरत है कि हम अंतरिक्ष कार्यक्रम पर बजट का केवल शून्य दशमलव 34 ही खर्च करते हैं। और इसका भी अधिकांश हिस्सा दूरसंचार, दूरसंवेदी और दिशासूचक उपग्रहों के निर्माण पर खर्च हो जाता है। मंगल मिशन की बात करें तो इस बजट की भी केवल आठ प्रतिशत राशि इस निमित्त खर्च की गई। इस छोटी सी राशि को खर्च करने के कई फायदे हैं जिसका सूक्ष्मता से विश्लेषण करें तो विरोधियों की बोलती बंद हो जाएगी। आज आपदा प्रबंधन से लेकर प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग तक में अंतरिक्ष अभियानों से फायदा पहुंचता है। आप सोचें कि केवल यह पता लग जाए कि आगे का मौसम कैसा रहेगा तो हम हर साल अरबों रपए के नुकसान से बच सकते हैं। यह नुकसान आपदाओं के रूप में तकरीबन हर साल सामने आता है। इस मामले में यह कहना कि भारत और चीन के बीच स्पेस रेस (अंतरिक्ष प्रतिस्पर्धा) कायम है, गलत होगा। हमें समझना चाहिए कि हर देश की अपनी अलग प्राथमिकता होती है। अंतरिक्ष अभियान की शुरुआत से ही भारत का लक्ष्य मूलभूत स्पेस अप्लीकेशन पर काम करना है। इस काम में भारत रोल मॉडल रहा है। जहां तक चीन की बात है, उसकी अपनी प्राथमिकताएं हैं। हम दूसरे के साथ दौड़ नहीं लगा रहे हैं। हमारी प्रतिस्पर्धा अपने आप से है कि कैसे निरंतर नई कामयाबी हासिल की जाए। भारत से पहले यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी, अमेरिका और रूस मंगल पर उपग्रह भेज चुके हैं लेकिन सफल अभियान से पहले तीनों ने असफलता का मुंह देखा। चीन की बात करें तो 2011 में चीन का मंगल अभियान यंगहाउ-1 असफल रहा। इसी तरह जापान का मंगल अभियान 1998 में शुरू हुआ जो ईंधन की कमी के कारण असफल रहा। नासा 2016 में इनसाइट नाम से लैंडर मिशन मंगल पर भेजना चाहता है, ताकि वहां की अंदरूनी सतह की बनावट का खुलासा हो सके। रशियन फेडरल स्पेस एजेंसी और यूरोपियन स्पेस एजेंसी इस साल मंगल पर उपग्रह भेजने की जुगत में हैं। अगले चार सालों में ये दोनों वहां रोवक भेजने की तैयारी भी कर रहे हैं। रूसी अंतरिक्ष विज्ञानियों का मकसद तो मंगल पर कई मौसम केंद्रों का नेटवर्क बनाकर उस ग्रह के खास वायुमंडल की बारीकियां समझना है। अभी मंगल पर दो मिशन रोवर अपॉच्यरुनिटी और क्यूरॉसिटी मौजूद हैं। नासा के ये दो दोनों रोबोयान मंगल पर जीवन और पानी की मौजूदगी के संकेत खोज रहे हैं। भारत के मंगल अभियान का भी एक मकसद जीवन की खोज से जुड़ा है। लेकिन इसका असल मकसद है यहां पर मीथेन गैस की मौजूदगी का पता लगाना। मंगलयान यह जानकारी भी जुटाएगा कि उस ग्रह के गर्भ में खनिज हैं या नहीं। साथ ही वहां बैक्टीरिया की मौजूदगी है या नहीं इसका भी पता वह लगाएगा। हमारा मानना है विज्ञान और प्राद्यौगिकी जीवन को सार्थक और सहज बनाते हैं। मंगल मिशन को भी इसी प्रिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। विश्व में धाक जमाने जैसी बात नहीं होनी चाहिए। यह क्षेत्र ऐसा है जहां प्रतिस्पर्धा की नहीं सहयोग की जरूरत रही है। हम दुनिया का सहयोग लेने और सहयोग करने के आकांक्षी हैं। (लेखक इसरो के पूर्व प्रमुख हैं)
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मंगल की मंजिल

जनसत्ता 25 सितंबर, 2014: यह शायद दोहराने की जरूरत नहीं कि भारत के मंगल अभियान की शानदार कामयाबी अब इतिहास के पन्नों पर सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो चुकी है। इस अभियान की सफलता देश की एक बड़ी उपलब्धि है। मंगल मिशन के सपने को सच करने की खातिर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी तमाम ऊर्जा और क्षमता झोंक दी, और इसके लिए उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी। बुधवार को सुबह लगभग आठ बजे इसरो के मार्स आॅर्बिटर मिशन, यानी मंगलयान के मंगल की कक्षा में प्रवेश करते ही भारत दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है, जिसने अपनी पहली ही कोशिश में यह कामयाबी हासिल की है। इससे पहले अमेरिका, रूस और यूरोपीय संघ अपने मंगल अभियानों में सफल हो चुके हैं, लेकिन कई-कई प्रयासों के बाद। अमेरिका को तो मंगल तक पहुंचने के लिए सात बार कोशिश करनी पड़ी थी। पर यह नहीं भूलना चाहिए कि तब से अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में और प्रगति हुई है। उन सब अनुभवों से जिस तरह दूसरे देशों की अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थाओं ने सीखा होगा, उसी तरह इसरो ने भी। चंद्रमिशन के बाद अब मंगल मिशन के मंजिल तक पहुंचने से अंतरिक्ष अभियानों के क्षेत्र में भारत की हैसियत काफी बढ़ गई है। करीब पचास साल पहले केरल के थुंबा अंतरिक्ष केंद्र से छोड़े गए पहले रॉकेट से शुरू हुए सफर का यह नया अध्याय है। गौरतलब है कि पोलर सेटेलाइट लॉन्च वीकल सी-25 की मदद से मंगलयान को पिछले साल पांच नवंबर को श्रीहरिकोटा अंतरिक्ष केंद्र से रवाना किया गया था और वह सफलतापूर्वक एक दिसंबर को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण-सीमा से बाहर निकल गया था।
मंगलयान के लिए तय कामों में मंगल ग्रह पर जीवन के लिए संभावित संकेत मीथेन यानी मार्श गैस के सूत्र का पता लगाने के अलावा वहां के पर्यावरण की जांच शामिल है। इसमें लगाए गए कैमरे थर्मल इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर लाल ग्रह की सतह और उसमें मौजूद खनिज संपदा का अध्ययन कर आंकड़े जमा करेंगे। मंगल ग्रह के अध्ययन और वहां से आंकड़े जुटाने में सात अमेरिकी मिशन काम कर रहे हैं। वैज्ञानिक अध्ययन और उपलब्धियां किसी भी देश की हों, वे भविष्य के प्रयोगों में सबके काम आती हैं। जिस तरह अमेरिका के नासा की उपलब्धियों ने दुनिया भर के अंतरिक्ष अनुसंधान को आगे बढ़ने में मदद की है, उसी तरह इसरो की कामयाबी भी सिर्फ भारत के लिए मायने नहीं रखती, भले उसे व्यवसाय के मोर्चे पर भी बड़ा फायदा हो। संभव है कि कई देश अपने अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण के लिए भारत की ओर रुख करें।
कुछ मामलों में दूसरे देशों से मदद लेने के बावजूद भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम काफी हद तक स्वदेशी और तुलनात्मक रूप से किफायती है। यह इस अभियान की एक और बड़ी खासियत है कि अमेरिका और रूस ने जहां अपने मंगल अभियानों के लिए काफी बड़े और महंगे रॉकेटों का प्रयोग किया, वहां भारत के इस अभियान पर महज साढ़े चार सौ करोड़ रुपए की लागत आई। जाहिर है, हमारे वैज्ञानिकों के सामने अपने इस अभियान के लिए जितनी भी संभावनाएं थीं, उसमें उन्होंने सबसे बेहतर और कम खर्चीले विकल्पों के साथ प्रयोगों के जरिए कामयाबी की कहानी रची। सवाल है कि इस रचनात्मकता, प्रयोगशीलता और प्रतिबद्धता का दायरा देश में विज्ञान शिक्षा, स्वास्थ्य, खेती आदि क्षेत्रों तक क्यों नहीं फैलता दिखता? इसरो जैसा उद्यम अन्य वैज्ञानिक संस्थाओं में क्यों नजर नहीं आता? इस ऐतिहासिक दिन के गर्व-बोध के साथ इन सवालों पर भी हमें सोचना चाहिए।
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बुधवार की मंगलमय सुबह

25, SEP, 2014, THURSDAY

24 सितम्बर, बुधवार 2014 को भारत ने एक मंगल इतिहास रचा। इस धरती के पार जो दुनिया है, वह कैसी है? सौरमंडल में पृथ्वी के जो अन्य बंधु-बांधव हैं, उनमें भी क्या जीवन स्पंदित होता है? क्या वे मात्र तपती गैसों और पत्थरों से भरे पिंड हैं या जीवन की तरलता की कोई संभावना उनमें तलाशी जा सकती है? हमारे वेद-पुराणों में, कथाओं में ग्रह-नक्षत्र कई-कई भूमिकाओं के साथ उपस्थित होते हैं, लेकिन समूचे ब्रहांड में उनकी क्या भूमिका है? क्या कभी धरती पर रहने वाला मानव किसी अन्य ग्रह में बसने वाले अब तक कल्पित प्राणी से साक्षात्कार कर सकेगा? ऐसे ढेरों प्रश्न मानव मस्तिष्क में न जाने कब से कुलबुलाते रहे हैं? धरती के पार मानव ने यात्राएं की हैं, अंतरिक्ष के एक छोटे से हिस्से में अनुसंधान करने का गौरव भी हासिल किया है, लेकिन अंतरिक्ष असीम है और उसे जानने की जिज्ञासाएं भी असीम हैं। फिलहाल जिज्ञासाओं की अंतहीन कड़ी में एक छोटा लेकिन महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया है भारत ने। मंगल ग्रह की कक्षा में भारत ने अपना पहला मंगल यान स्थापित करने में सफलता हासिल की है। खास बात यह है कि भारत विश्व का अकेला ऐसा देश है, जिसे अपने प्रथम प्रयास में ही यह विशेष सफलता हासिल हुई है। अब तक अमरीका, रूस और यूरोपीय संघ ने मंगल अभियान में सफलता प्राप्त की है, भारत इस संघ में चौथा देश बन गया है, यूं एशिया का वह पहला देश है जिसने मंगल अभियान में सफलता प्राप्त की। विश्व के अन्य अभियानों से अलग हमारी खासियत यह भी है कि यह मात्र 450 करोड़ रुपए के खर्च पर संचालित किया गया, और विश्व में सबसे सस्ता मंगल अभियान बन गया। इसी हफ्ते नासा से जो मंगल अभियान संचालित हुआ, उसकी लागत इससे दस गुना है। अर्थात भारतीयों ने यह साबित कर दिया कि वे सफल वैज्ञानिक अनुसंधान के साथ-साथ वैज्ञानिक अर्थशास्त्र में भी सर्वश्रेष्ठ हैं। भारत की इस ऐतिहासिक सफलता पर हरेक देशवासी का प्रसन्न होना स्वाभाविक है। जो लोग मंगल को एक ग्रह के नाम से अधिक नहींपहचानते और जो इसका खगोलीय महत्व समझते हैं, ऐसे हर वर्ग के लोग इस अभियान के सफल होने पर गर्व महसूस कर रहे हैं। निस्संदेह इसका सारा श्रेय हमारी अंतरिक्ष अनुसंधान एजेंसी इसरो को जाता है, जिसके वैज्ञानिकों ने दिन-रात के अथक परिश्रम से एक असंभव लगने वाले कार्य को संभव बना दिया। 
बुधवार की सुबह यह देखना रोचक था कि जो टीवी न्यूज चैनल सुबह का वक्त धार्मिक प्रवचनों, राशि के आधार पर भविष्यफल, अज्ञात भयों को दूर करने के लिए बाबाओं के टोने-टोटके आदि के लिए आरक्षित रखते हैं, उनमें बड़ी-बड़ी माला और उंगलियों में दस-बीस अंगूठियां धारण किए बाबाओं की जगह वैज्ञानिकों के दर्शन हुए। समाचार प्रस्तोता इन वैज्ञानिकों से मंगल अभियान की चर्चा कर रहे थे। अपने साथ-साथ दर्शकों की जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे कि यह अभियान क्यों शुरु हुआ? इससे क्या लाभ मिलेंगे? तरल इंजन क्या है? यान को कितनी दूरी का सफर करना है? इस अभियान में कितना वक्त लगा? पृथ्वी से इसका संपर्क कैसे स्थापित होगा? ऐसे कई प्रश्नों का जवाब चैनलों में बैठे वैज्ञानिकों ने आसान भाषा में दिए और विज्ञान के बारे में एक नया नजरिया विकसित करने में मदद की कि यह जटिल नहींहै, ठीक से समझाया जाए तो आसान ही है। यह ठीक है कि जो बिकता है, वही दिखाना चैनलों की व्यावसायिक मजबूरी है, लेकिन एक जुमला यह भी है कि जो दिखता है, वह बिकता है। क्या ऐसा नहींहो सकता कि वैज्ञानिक सोच के प्रसार को मात्र दूरदर्शन की जिम्मेदारी न मानकर निजी चैनल भी अपने 24 घंटों के कार्यक्रम में कुछ समय विज्ञान चर्चा के लिए समर्पित करें। इससे देश में निश्चित ही एक नयी वैज्ञानिक सोच को बल मिलेगा। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी मौके पर चौका मारने में उस्ताद हैं। इसरो की इस बड़ी सफलता पर वे वहां उपस्थित हुए ही, उनकी उपस्थिति को देश भर में बच्चे देखें, यह भी सुनिश्चित किया गया। जब मंगल यान ने सफलतापूर्वक पृथ्वी से संपर्क स्थापित किया जो वहां उपस्थित वैज्ञानिकों के साथ उन्होंने ताली बजाई और उसके बाद चिरपरिचित अंदाज में बधाई देते हुए भाषण दिया। इस भाषण में पुरुषार्थ, सिद्धि, विश्वगुरु भारत, गुरु-शिष्य परंपरा जैसे शब्द आए। वैज्ञानिकों को उन्होंने समझाया कि तैरना हो तो पानी में उतरना ही पड़ता है, जोखिम उठाने से घबराना नहींचाहिए, आदि। आर्यभट्ट, स्वामी विवेकानंद, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी उन्होंने याद किया। शायद इस देश में आजादी के बाद विज्ञान की शिक्षा और वैज्ञानिक शोध, अनुसंधान को बढ़ावा देने वाले प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम वे भूल गए। प्रसंगवश पाठकों को यह स्मरण करा दें कि मंगल अभियान 5 नवंबर 2013 को प्रारंभ हुआ था, इस परियोजना को तत्कालीन यूपीए सरकार ने मंजूरी दी थी और देश में छाए आर्थिक संकट के बावजूद देश में विज्ञान के बेहतर भविष्य के लिए इसमें आगे बढऩे का हौसला वैज्ञानिकों को दिया था।

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